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बसपा नेता मायावती द्वारा ईवीएम पर शंका की उगली को बहुतों ने हार की खिसियाट कह कर मजाक बनाया है। सम्भव है मायावती से पारम्पारिक कुंठा अथवा बसपा के मुस्लिम समर्थक बयानों के कारण उपहास द्वारा मन को सहला रहे हों किन्तु 2009 में जब लाल कृष्ण अडवानी ने ईवीएम पर प्रश्न उठाये थे तब लोग गम्भीर थे। यही नहीं भाजपा के समर्थक प्रवक्ता तथा इलैक्ट्रोनिक विज्ञान के विशेषज्ञ जीवीएल नरसिंह राव ने पूर्व में गडबडी की सम्भवानाओं को उदाहरण के साथ अपनी पुस्तक में उल्लेख किया हैं। अब वे भी बेइमानी की सम्भावनाओं को नकार रहें हैं।
इस विवाद को विचार के रूप में बदल कर नये प्रयोग किए जा सकते हैं। केवल आरोप व उनपर जाँच की मांग न कर इलैक्ट्रोनिक जगत के शोघार्थीयों को चुनौती देकर चार-पाँच करोड का पुरूस्कार इस आशय के साथ घोषित किया जा सकता है कि ईवीएम में दवाए गये बटन से पृथक खाने में पड गये वोट की सम्भावना को जो सप्रमाण प्रदर्शित कर दिखायेगा उसे पुरस्कार दे दिया जायेगा। इससे ईवीएम की सत्यता को प्रमाणिक व घोटला बताने वाले , दोनों पक्षों को पुष्टिकारक निर्णय मिलेगा। जहाँ दुनिया के गोपनीय से गोपनीय एकाउन्ट हैक किए जा रहे हों, अतिसंदेवनशील ई-मेल चोरी की जा रहीं हों, बहाँ वोटिंग मशीन पर शंका करना मात्र हास्य नहीं हो सकता। कदाचित विकसित कहे जाने वाले ऐसे राष्ट्र भी हैं जहाँ ईवीएम द्वारा इन्ही कारणों से चुनाव नहीं कराये जा सकते। तीन वर्ष पूर्व उच्चतम न्यायालय ने भी जनता के विश्वास को कायम रखने के ख्याल से ईवीएम के साथ वोट डालते में उससे मुद्रित पर्ची की निकासी को बैलट वॅक्स में सुरक्षित रखने के लिए कहा था। चुनाव आयोग ऐसा क्यों मान कर चल रहा है कि जो उसने कह दिया उसे विना बहस ठीक मान लिया जाय? स्वंय आयोग कहता रहा है कि चुनाव निष्पक्ष ही नहीं वरन् निष्पक्ष दिखने भी चाहिए। चुनाव में ऐसे विचारों को निर्मूल नहीं कहा जा सकता। जब भाजपा हारी तो उसे शंका हुई अब बसपा, कांग्रेस, सपा व आप को शंका का अघिकार है। पंजाब में कांग्रेस जीती तो वे वहाँ ठीक कह सकते हैं।
कानून की पढाई करने वालों के लिए पाठयक्रम में एक अध्याय ईवीएम पर शंका का भी जोडना चाहिए। महाविद्यालयो मे इस विषय पर की गयी बहस लोकतन्त्र में भविष्य के किसी भी खतरे पर बाल की खाल निकालने जैसा चिंतन करोयेगी जिससे लोकतन्त्र के सम्भावित खतरों की बारीक दरारों को भी लीकप्रूफ कर जा सकेगा। लोकतन्त्र के प्रति युवाओं में सतर्कता आवश्यक है। 25 जून 1975 को हुई आपातकाल की घोषणा जैसे खतरे का वचाव यही है। लोकतन्त्र में व्यवस्था के किसी भी बिंदु पर उठी उगली को सिरे से खारिज करने के वजाज बहस व जाँच आवश्यक है। आज शिकायत करने वाला पक्ष दूसरा है। पाँच वर्ष पूर्व भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी व जीवीएल नरसिंह राव जैसे विद्धानों की शिकायतों को झूठा क्यों मानें?
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