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भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रत्येक पहलू पर एैसे काले धब्बे देखने को मिल जायेंगे जिनसे लगता है कि अर्थनीति भारत की सामान्य जनता को संबोधित न कर किसी खास वर्ग के हितों का संरक्षण कर रही है। रिजर्व बैंक द्वारा चालू वर्ष के प्रथम दो माह के परिणामों की समीक्षा के बाद ब्याज दरों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। रिजर्व बैंक की भविष्य की आशा बेहतर वर्षा के अनुमानों से अच्छी पैदावार पर टिकी हुई है। शायद अगस्त तक परिणामों को जांचा जायेगा। दरअसल साधारण दुकानदार, कुटीर, लघु उद्योग व बड़ी पूँजी के उद्योगों को एक ही लाइन से नहीं देखा जा सकता। जिन लोगों ने 2009 में अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट पढ़ी है वे समझ सकते हैं कि बड़े उद्योगों को पूँजी की सहायता या पूँजी लागत मूल्य कम करने से मुद्रा का उपयोग उत्पादन बढ़ाने की बजाय मशीनरी के स्वचालन उच्चीकरण में किया गया। परिणामस्वरूप उत्पादन उतना ही रहा परन्तु कर्मचारियों की छँटनी हो गयी। कांग्रेस शासन की नीतियों का हू-ब-हू अनुपालन भाजपा कर रही है। विगत 15 माह में एक लाख कर्मचारियों पर सात हजार छँटनी होकर बाहर आ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश सरकार ने विद्धतापूर्ण निर्णय लेते हुए छोटी श्रेणी, जिनमें सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग हैं, को प्रोमोट करने की नीति बनाई। ये उद्योग कृषि के बाद रोजगार प्रदान करने वाला सबसे मजबूत क्षेत्र है। रिजर्व बैंक रेपो रेट कम करती है तो पूँजी लागत कम होने से बड़े उद्योगों का मुनाफा बढ़ेगा जबकि छोटे उद्योगों व दुकानदारों को कारोबार बढ़ाने में सहायता मिलेगी जिससे नये रोजगारों का सृजन होगा। उधर बैंक ब्याज दर कम करते ही बचत कर्ताओं की मासिक आय में कटौती होगी जो बचत को हतोत्साहित कर पीली धातु में निवेश को आकर्षित करेंगी। इसलिए समय है कि रिजर्व बैंक विभिन्न क्षेत्रों के लिए परिवर्तनशील ब्याज दरों का विचार लेकर आए। जनधन योजना से एक सीख अवश्य मिलनी चाहिए कि जो तालाब में एक कटोरा दूध डाल रहा है, भविष्य के दीर्घकालीन लाभ का हकदार उसका परिवार है। 24 करोड़ अत्यंत गरीब लोगों की अपनी इच्छाओं पर पथ्थर रखकर की गयी 30 हजार करोड़ की बचत से उच्चस्थ अमीरों के उद्योग सींचे जांय तो यह नाइंसाफी होगी। इस धन को वापस उसी वर्ग को लाभ देने के लिए कुटीर व अन्य छोटे उद्योगों की सहायता में लाया जाना चाहिए था।
रिजर्व बैंक सरकार के दबाव से मुक्त रह कर नहीं चल सकती। कभी कभी लगता है कि वित्तमंत्री व गवर्नर के बीच असहमति है परन्तु कुल नियंत्रण सरकार का ही होता है। कर्ज चुकता न करने वालों के भद्दे खातों के बीच फंसी बैंको के पास एैसे खातेदारों को ऋण से उपकृत करते समय कोई तो कारण अवश्य रहा होगा। एैसे खातेदार बहुत कम संख्या में होगें जो परिस्थितिवश कंगाल हुए। प्रथम दृष्टय पक्षपात ही सामने आ रहा है। कभी चौथी लोक सभा में नागरवाला कांड पर हुई बहस से शासकों व बैंकरों को चौकन्ना हो जाना चाहिए था। परन्तु लगता है उसके बाद सत्तारूढ़ दल, बैंक प्रबंधन तंत्र व भ्रष्ट पूँजीपत्तियों का गठजोड़ मजबूत हुआ।
अभी रिजर्व बैंक के सामने बड़ी चुनौती सवा लाख करोड़ राशि की वेतन बढ़ोतरी है। वेतन वृद्धि की स्वभाविक प्रक्रिया मंहगाई होती है इसलिए समाजशास्त्री विकल्प के रूप में सेवा-कार्य क्षेत्र में सुधार, रहन-सहन की सुविधा, बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य सेवाओं को उत्तम बनाने के व्यवहारिक प्रयोग करने के लिए कहते रहे हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हर नीति दूसरी नीति के साथ कड़ीयों के रूप में जुड़ी हुई है। जब शिक्षा की बात आए तो पारम्पारिक सरकारी बाबू बनाने वाली बी.ए., एम.ए. की डिग्री की जगह रोजगार प्रेरित एवं ज्ञानवर्द्धक शिक्षा की ओर जाना चाहिए जहाँ सामान्य भाषा ज्ञान के बाद विद्यार्थी के रूझान के अनुरूप सीख प्राप्त हो।
एक तरफ वेतन बढ़ेगे, दूसरी तरफ स्वास्थय के निजी कारोबारीयों की बढ़ती दुकानों पर उल्टे उस्तरे से हजामत बनेगी। सरकारी क्षेत्र में सबसे बड़ी कमजोरी मौसम भरोसे खाद्यान्न की आवश्यक मात्रा व मंहगाई की सुई को हाथ पर हाथ रख ताकते रहने की है सौ रिजर्व बैंक के गर्वनर भी मौसम पर निर्भर रह कर आशा कर रहे हैं कि मंहगाई कम हो सकती है जबकि बेहतर होता कि खाद्यान्न जिन्सों की आवश्यकता के अनुरूप आपदा प्रबंध के तौर तरीके अपनाते हुए तैयारी पूरी रखें और जरूरत देखते ही एक्शन में आ जायं।
गोपाल अग्रवाल
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