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प्रान्तीय सत्ता क्षेत्रीय दलों के पास

gopal agarwal
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गोपाल अग्रवाल
गोपाल अग्रवाल

विविधताओं से भरपूर भारत की जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति कोई एक दल नहीं कर सकता। प्रथम आम चुनाव के बाद विभिन्न प्रान्तों में जन आक्रोश की लकीरों को पढ़ने में कांग्रेस अक्षम ही रही। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद सभी प्रान्तों में कांग्रेस का लम्बा शासन तब तक रहा जब तक क्षेत्रीय स्तर पर कांग्रेस छोड़कर निकले नेताओं ने तत्कालीन अन्य पार्टी के नेताओं के साथ गठजोड़ बनाकर चुनौती प्रस्तुत न कर दी। क्षेत्रीय स्तर पर लोकतन्त्र की खाद व पानी पर बोये गये क्षेत्रीय दलों के बीजों की बेल निकलने में वक्त लगा। 1952  में हुए प्रथम आम चुनाव में 50 वर्षीय श्री जयप्रकाश नरायन व 42 वर्षीय डा. राम मनोहर लोहिया राष्ट्रीय विकल्प के रूप में दीखने लगे थे। केरल की जनता ने दक्षिण पंथियों के मुकाबले वामपंथीयों को प्रमुखता दी थी जिनमें साम्यवादी व समाजवादी दोनों ही दल थे।

एक दशक बाद ही बंगाल में समतामूलक सिद्धान्तों के साथ साम्यवादीयों के पनपने से कांग्रेस चिंतित हो उठी थी। कश्मीर में भी कांग्रेस का आधार नहीं बन सका। वहाँ के पूर्व शासक राजा हरीसिंह के मुकाबले आवाम ने शेख अब्दुल्ला की आवाज को मजबूत माना। शेख अब्दुल्ला ने कभी भी कश्मीर को भारत से अलग मानने की बात नहीं कहीं। भारत के पराधीन काल में कांग्रेस के गर्भ से निकली समाजवादी पार्टी के सभी नेता स्वतन्त्रता संग्राम की आग में तपकर सिद्धान्तवाद के आभामण्डल के कारण दीप्तिमान थे। कांग्रेस के बाद समाजवादी पार्टी ही थी जिसके नेता प्रत्येक प्रांत में लोकप्रियता के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। परन्तु, राष्ट्रीय होने के सम्मोहन से समाजवादी पार्टी भी विरक्त न हो सकी। यद्यपि डा. लोहिया प्रान्तीय भाषाओं को कायम रखते हुए विदेश व रक्षा को छोड़ अन्य मामलों में प्रान्तीय स्वायत्ता की वकालत करते रहे। उन्होंने तत्कालीन पाकिस्तान व भारत को भी एक सूत्र में बांधकर महासंघ बनाने का विचार रखा था। डा. लोहिया की सोच वैश्विक थी। वे विश्व के सभी राष्ट्रों को आन्तरिक स्वाधिकार देते हुए समस्त मानव जाति को एक नस्ल के रूप में मान्यता देते थे। राष्ट्रों के बीच सीमा के लिए होने वाले युद्धों पर विराम लगाकर दरिद्रता व कुपोषण को मिटाने के लिए संघर्ष का आव्हान करते थे। भारत में भी नेहरू के आकर्षक व्यक्तित्व की चकाचौंध भुलाकर साधारण व्यक्ति की भूख मिटाने के लिए सरकार को बार-बार ललकारते रहे। एक दलीय सत्ता के अभिमान में कांग्रेस इतनी दंभी हुई कि किसानों की घोर उपेक्षा कर उन्हें प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया। युवाओं के प्रति कांग्रेस की भूमिका परिवार के उस मुखिया की तरह रही जिसने परिवार के बच्चों का हाल-चाल लेना तो दूर, कभी आँख उठाकर देखना भी मुनासिब नहीं समझा। उनके दिन रईसों, ओहदेदारों व विदेशी मेहमानों के साथ चकाचौंध की कृत्रिम दिनचर्या और आत्मप्रशंसा में ही बीते।

समाजवादी भी ईमानदारी से अपने संगठन को प्रान्तों में स्वायत्ता नहीं दे पाये। महात्मा गाँधी की सोच पूर्णतया विक्रेन्दीकरण की थी। डा. लोहिया भी गाँधी चिन्तन के पक्षधर थे तथा उससे भी आगे जाकर उन्होंने पुलिस का एक विभाग स्थानीय स्वायतशासी संस्थाओं के नियन्त्रण में करने का सुझाव रखा था।

कुछ भी हो राजनीति विसात में पं. नेहरू दूरदर्शी थे। वे रातों रात बेल की रफतार से बढ़ने वाली समाजवादी पार्टी पर कैंची चला कर आकार में छोटा रखने में कामयाब रहे। सबसे बड़ा झटका 1957 के आम चुनाव के बाद अशोक मेहता के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के एक गुट को कांग्रेस में मिलाकर दिया।

कैंची और पेबन्दों की कला से कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी तो बनी रही लेकिन तभी तक जब तक पं. जवाहर लाल व इंदिरा गाँधी जैसे मजबूत नेता रहे। लाल बहादुर शास्त्री का समय संकटों का सामना करने में गुजरा। उनका ज्यादातर समय राष्ट्रीय चुनौतियों में बीता। उन्होंने सावधानी व समझदारी से देश की सीमाओं पर हुए आक्रमण व राष्ट्र के अंदर खाद्यान्न संकट को संभाला।

डा. लोहिया ने कहा था कि कांग्रेस चट्टान जैसी दीखती है परन्तु उसमें इतनी दरारे वे अवश्य पैदा कर देगें कि एक दिन व भंगुर बन कण कण में बिखर जायेगी। आज कांग्रेस कंकड़ बन बिखर चुकी है। कांग्रेस की बड़ी भूल रही कि प्रान्तीय सत्ता का उपयोग प्रान्तीय समस्याओं को समझने व सुलझाने के बजाय क्षेत्र की दौलत के स्त्रोतों को शीर्ष पूँजीपतियों के हवाले ही करते रहे।

प्रत्येक प्रान्त के पास कुछ न कुछ प्राकृतिक खजानों के स्त्रोत हैं। मध्यप्रदेश झारखंड, छत्तीसगढ़, आसाम के पास जंगल तो हैं ही, भूमि के गर्भ में बहूमूल्य खनिज भी हैं। उत्तर पश्चिम से उत्तर पूर्व तक जंगलों के साथ अमूल्य नदीयों व झरनों का पानी है। बंगाल की खाड़ी व अरब सागर के समुद्रीय पानी ने पौष्टिक वनस्पति व खाद्यान्न के पूरक के रूप में विटामिनों से भरपूर मछलिया दी हैं परन्तु हम देख रहे है कि असम से दक्षिण की ओर जाते हुए ओर यू-टर्न लेकर छत्तीसगढ़ से झारखंड तक सभी जंगलों पर वनवासियों को विस्थापित कर कुछ कंपनियों को निजी सम्पन्नता के पिरामिड बनाये जा रहे हैं। इसी असंतुलन ने कांग्रेस की नींव को हिलाकर उसका महल गिरा दिया। जनता का विश्वास टूटने पर भाजपा की भी वही स्थिति होने वाली है।

प्रचार सदैव ही पुकार का सर्वोत्तम माध्यम रहा है। प्रचार से ही चाँद तारे तोड़कर ला देने जैसे वायदों की तर्ज पर तेल क्रीम पाउडर बेच जा रहे हैं। प्रचार का ही कमाल है कि पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों में चार में लड़खड़ा कर गिरने के बावजूद असम में भाजपा की जीत होली-दिवाली का संयुक्त आयोजन बन गयी। इस जीत का विश्लेषण भी होना चाहिए।

भारत में मुसलमानों ने अपना राजनीतिक तौर पर नेता किसी मुसलमान को नहीं माना। कारण स्पष्ट है। लोकतन्त्र में जहाँ बहुमत से ही सरकार बनती है, मुसलमान को नेता मान लेने पर दायरा सिमट जायेगा। समाज विशेष के व्यक्ति को राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक स्तर पर नेता बना लेने से वोट संख्या सिकुड़ जायेगी। मुसलमानों ने इंदिरा गाँधी, हेमवती नन्दन बहुगण, मुलायम सिंह यादव को नेता मान अपने को सुरक्षित समझा। इसे और अधिक विस्तार में समझने के लिए 1993 का देखें जब मायावती के साथ दलित समाज व सपा के पिछड़ों का मेल हुआ तो सरकार बनी। अकेले दलित वोट सरकार नहीं बना सकते। चौधरी चरण सिंह ने पिछड़ों के साथ मुसलमानों को एक सूत्र में जोडा तो पाँच राज्यों में सत्ता परिवर्तन हुआ। असम में मुसलमानों के सम्मुख मुसलमान चेहरा मुख्यमंत्री के लिए आया तो धुव्रीकरण में भाजपा जीत गयी। बाकी वोट कांग्रेस व ए.यू.डी.एफ. में बँट गये। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व बड़े उद्योगपतियों को असम में भेजेगा। वहाँ असमियों का दोहन होगा। स्थानीय नेतृत्व ने यदि एैसा होने से रोक लिया तो सरकार टिकाऊ हो सकती है, वरना असंतोष शीघ्र उभरेगा। क्षेत्रीय राजनीति के मुखर होने का यही बड़ा कारण है। प्रान्तीय जनता नहीं चाहती कि आय के स्थानीय स्त्रोतों पर बड़ी कंपनियाँ हाथ डालें। सब्जी रियान्स व दाल वार्लमार्ट बेचेगा तो मौहल्ले के ठेले वाले व परचूनिये का रोजगार केसे चलेगा। अंग्रेजी कंपनी के भारत आने से यहाँ के निवासी नाराज थे। इसे एैसे भी समझ सकते है कि एक राष्ट्र की समुद्र सीमा में दूसरे राष्ट्र के मछुआरों को किसी भी शर्त पर नहीं आने दिया जा सकता। यदि विदेशी मछुआरा कंपनी बड़े आकार की हो तथा कहे कि वे अपने यहाँ स्थानीय मछुआरों को नौकर रखेंगे और रोजगार सृजन करेंगे तो यह सफेद झूठ होगा। अक्सर कह दिया जाता है कि अभुक जगह बड़ी कंपनी आयेगी तथा उद्योग लगाकर स्थानीय लोगों को नौकरी देगी व छोटे कलपुर्जे बनाने वालों से माल आपूर्ति होगी तो यह भ्रम है। बड़ी कंपनी आने पर जो जमीन घेरेगी उसके विस्थापितों की संख्या अधिक होगी। कुछ रोजगार प्राप्त करेंगे तो बहुत बेरोजगार होगें। मानें कि कोई केन्द्र सरकार का आर्शीवाद प्राप्त कंपनी किसी प्रान्त में खनन के लिए आ रही है। जहाँ उसी दल का शासन है जिसका केन्द्र में हो, तो दबाव बना कर आसान शर्तों पर कोढ़ी के भाव ठेका मिलेगा। मुनाफा कंपनी का होगा।

असम में भाजपा गठबंधन को 42 फीसद तो त्रिकोणीय मुकाबले की दो पार्टीयों को मिलाकर 48 फीसद मत मिले। यदि कांग्रेस व ए.आई.यू.डी.एफ. दोनों मिलकर गठबंधन करते तो भी लाभ भाजपा को ही होता क्योंकि कांग्रेस का परम्परागत वोट ए.आई.यू.डी.एफ. के भाषणों को स्वीकार नहीं करता। इसके विपरीत यदि असम गणपरिषद पूर्व की तरह मजबूत स्थिति में होती तो मतदाताओं का बड़ा हिस्सा भाजपा व कांग्रेस से हट कर उन्हें वोटिंग करता।

स्थानीय दल न होने के कारण ही भाजपा को कामयाबी मिली। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ राजस्थान में भी कोई क्षेत्रीय विकल्प नहीं है। दिल्ली, बिहार, उत्तर प्रदेश, प. बंगाल, तमिलनाडू, केरल में मजबूत क्षेत्रीय दल मौजद हैं। गुजरात में अभी तक कांग्रेस व भाजपा के बीच ही मुकाबला है। हो सकता है कि अगामी विधान सभा चुनावों में वहाँ कोई दल उभरे। तब चुनाव रोचक हो जायेगा।

आगे आने वाले चुनावों में पंजाब में मुकाबला अकाली व आप के बीच हो सकता है। उत्तराखंड में दो ही दल होने के कारण न शासन सुधर रहा है न विकास हो रहा है। कुल मिलाकर आने वाला समय क्षेत्रीय दलों का ही होगा। परन्तु 2019 में लोकसभा चुनाव में जनता कांग्रेस व भाजपा को किनारे कर पुन: केन्द्र में 1995 की स्थिति बनायेगी, यह प्रतीक्षा कर देखने की बात है।

गोपाल अग्रवाल

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