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पानी के लिए जन अभियान की आवश्यकता
जिसके पास शेष है बचत का अवसर उसी के पास है। जो खर्च कर चुका, बचत नहीं कर सकता। उत्तर भारत में अनेकों स्थान पर पानी की किल्लत नहीं है। बचत इन्हीं को करनी है वरना यहाँ भी कंधों पर घड़े, बुग्गीयों मे पीपों से पानी लाना पड़ेगा। बेहिसाब जल दोहन करने वालों को यह जान लेना आवश्यक है कि जिस प्रकार सूखी गर्म हवाएँ होठों पर फटी पपड़ी बना देती हैं उसी तरह भविष्य में उनकी जमीन भी सूखी दरारें की टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं की शक्ल में आ जायेगी।
अभी पानी की बहुतायत वाले शहरों में यद्यपि भूजल स्तर निरन्तर गिर रहा है फिर भी स्थानीय स्वायत्तशासी संस्थाएँ नियन्त्रण व पुनर्भरण के प्रति गम्भीर नहीं हैं। भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, केन्द्रिय भूजल प्राधिकरण तथा क्षेत्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड मिलकर अभी तक एैसी कोई नीति नहीं बना पाये जिससे प्रतिदिन हो रही पानी की बर्बादी को रोका जाय। घरों व कारखानों से पानी की निकासी को दो स्तरों पर बांटने का कार्य अभी आरम्भ नहीं हुआ है। यद्यपि नगर नियोजन को व्यवस्थित करने वाली संस्थाओं के ऐजेन्डे में यह कार्य है परन्तु नये बन रहे भवनों के लिए अनिवार्य रूप से स्थापित किए जाने वाले वर्षा जल सम्भरण हौज की स्थापना का शपथ पत्र लेकर मात्र कागजों पर औपचारिकता पूरी की जा रही है।
पानी के क्षय को बचाने के लिए प्रत्येक कारखाने व आवास में मल अपशिष्ट के लिए पृथक लाइन बनाकर सार्वजनिक सीवर से जोड़ने व अन्य प्रयोग के पानी की पृथक लाइन से पुन: चक्र द्वारा पीने के अतिरिक्त अन्य कार्यो में प्रयोग के लिए स्थापित संयत्र से जोड़ना वर्तमान की आवासीय व औद्योगिक नीति का अनिवार्य हिस्सा अब तक बन जाना चाहिए था। दुर्भाग्य से वर्षा के पानी को भूजल में पुन: सम्भरण के लिए प्रयोग करने की नीति भी उपेक्षित है।
यदि दो दशक पूर्व तक की सड़क निर्माण
पद्धति को देखा जाय तो पक्के मार्ग के दोनों
ओर कच्चे मार्ग {पेब्ड} का क्षेत्रफल भी समानुपाती
रहता था जिससे जमीन पानी को सोख लेती थी
। अब इन्टरलाकिंग पद्धति में सड़क के दोनों भाग
नाली से नाली तक कोई पेब्ड एरिया नहीं है
अर्थात् बारिश का कुल जल नाली में जाकर सीवर
से जुड़ जाता है। हमारे लिए पश्चिम की धूल रहित
सड़कों की कल्पना सुखद हो सकती है परन्तु उस
परिस्थिति में बारिश के पानी के लिए पृथक नाली बना कर उस पर ड्रापिंग पाँइंट बना कर लोहे के जाल लगाने होगें। भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए कोई भी कीमत कम है क्योंकि यह हमारी अगामी तीसरी पीढ़ी के पीने के पानी की व्यवस्था है जो हमारा अनिवार्य कर्तव्य भी है। आम के पेड़ अपने लिए नहीं बल्कि दूसरी पीढ़ी के लिए लगाये जाते है। दुर्भाग्य से जीवन के दो अनिवार्य तत्व हवा व पानी के भविष्य के बन्दोबस्त के लिए हमारी सार्वजनिक संस्थाएँ सुस्त हैं। हम भी जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य निभाने के बजाय झूठा शपथ पत्र देकर भवन निर्माण करा रहे हैं।
भूजल की पुन: आपूर्ति के प्रति आवास नियोजकों की लापरवाही आबादी को सूखे व अकाल की तरफ धकेल रही है। बड़ी कठिनाई यह है कि सभी संबधित विभागों ने अपने को परिवाद ग्रहण करने के दफतर तक सीमित कर लिया है। राष्ट्र में न्यायालय भी स्वत: संज्ञान में परिवादों को लेकर कार्य कर सकते हैं परन्तु सरकारी विभाग गलती के अवसर ढूढ़कर अवैध दोहन तक अपनी जिम्मेदारी समझ रहे हैं। यहाँ विषय गलती पकड़ने का नहीं है। वास्तविक समस्या पानी बचाने व भूजल पुन:भरण की है। इस ओर केन्द्रिय भूजल प्राधिकरण व क्षेत्रीय प्रदूषण कार्यालय प्रोएक्टिव नहीं है। नये भवनों के निर्माण में क्षेत्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड को अनाप्ती प्रमाण-पत्र का जिम्मा सौंपा गया है परन्तु वाटर हार्वेस्टिंग तथा दोहरी जल निकासी की स्थापना उनकी भौतिक जाँच में नहीं है। निर्माण साम्रगी व पथ्थर कटाई के दुषित कणों की वायु में समाहित होने की सान्द्रता रोकने के नियमों की अवेहलना के बावजूद अनाप्ती प्रमाणपत्र निर्गत होने के तरीकों पर अफसोस ही हो सकता है। सभी प्रकार के रंग स्याही व तेल छोड़ने वाले उद्यमों की पानी निकासी में क्रमबद्ध होज पद्धति से ठोस अवशिष्टों को रोकने व तैलीय पदार्थे के लिए अघुलनशील अवयव बना कर छनन कर लेने के संयत्रों की स्थापना अभी नहीं हुई है। शासन ने सुविधा दी हुई है कि औद्योगिक क्षेत्रों में संयुक्त ईटीपी {इफलूऐंट ट्रीटमेंट प्लांट} लगाने पर आए खर्च में 50 प्रतिशत केन्द्र, 25 प्रतिशत राज्य की भागीदारी रहेगी। शेष 25 प्रतिशत ही संयुक्त उपक्रम लगाने वाले ग्रुप की मिलकर देना होगा परन्तु न तो इसका प्रचार है और न ही प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड छोटे मोटे लालचों के कारण इसका प्रचार कर रहे हैं। उद्यमियों के लिए यह बहुत कम बजट में होने वाला प्रभावी काम है जबकि इससे बचने पर दिये जाने वाले मासिक अवैध चन्दे की रकम कुल खर्च से अधिक ही पड़ेगी।
यदि पानी बचाना है तथा शुद्ध पानी की मात्रा के स्तर को बनाए रखना है तो आवासीय कल्याणकारी संस्थाओं व स्थानीय स्वायत्तशासी विभागों को सक्रिय होकर इसे जन आंदोलन में परिवर्तित करना होगा।
गोपाल अग्रवाल
{लेखक समकालीन नीति अनुसंधान फोरम “आनन्द सागर” से जुड़े कार्यकारी सदस्य है}
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