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किसी परिवार में कुछ सदस्य रूग्ण अवस्था में हैं। परिवार में दो नौजवान सदस्य भी हैं जो स्नातक हैं। दोनों युवा अपने कर्तव्यों के विषय में निम्न सोच रख सकते हैं-
1. हाथ पर हाथ रख कर भगवान भरोसे बैठे रहें। कोई मदद कर देगा तो इलाज करा देंगे।
2. परिवार के चक्कर में न पड़ें, अपने केरियर को देखें।
3. परिवार की मदद के लिए फ्रंट पर आ जायं, कठिन परिश्रम कर परिवार को राहत पहुंचाने में सहयोग करें।
जाहिर है कि तीसरा विकल्प सर्वोत्तम है।
यही दशा समाज की है। जो बुद्धि के धनी है तथा ऊर्जा से लवालक है उन्हें समाजिक व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए आगे आना चाहिए। अब काम धाम देखें या समाजसेवा में लगें? यह प्रश्न बड़ा बन कर सामने आयेगा। मेरा मानना है कि न काम छोड़ने की आवश्यकता है और न समाज सेवा से विमुक्त होना है। यही आदर्श अवस्था है।
आय के साधन तथा व्यवस्था को दुरस्त करने के कार्य के बीच संतुलन स्थापित कर प्रत्येक युवा अपने जीवन की गुणवत्ता बढ़ा सकता है।
यह वक्त्व्य गैर जिम्मेदाराना माना जायेगा कि हम स्नातक हो गये परन्तु चपरासी की नौकरी तक न मिली। आप अपने से प्रश्न कीजिए कि पढ़ाई में उद्देश्य पास होने का था अथवा विषय वस्तु का अध्ययन कर ज्ञान अर्जन का था?
क्लास रूम की पढ़ाई में अनुपस्थित रहने वाले, कोर्स की किताब के स्थान पर पच्चीस तीस सवालों के उत्तर रटकर पास होने की इच्छा रखने वाले, स्वंय ही सोचें कि ज्ञान के प्रकाश की लौ जलाना नहीं आया तो अंधेरे में ठोकर खानी ही पड़ेगी।
भगवान भरोसे रहने वाले युवा तर्क करते हैं कि बड़े घरानों में पैदा होने वाले कुशाग्र बुद्धि न होते हुए भी आरामदायक जीवन व्यतीत करते हैं। राजनीत में भी ऐसे व्याक्ति है जिन्हें विचारवान नहीं माना जा सकता फिर भी वे सुर्खीयों में रहते हैं। यह सच्चाई है, परन्तु कभी उनके बड़े यानी उनसे पहले की दो चार ऊपर की पीढ़ियाँ अवश्य ही धरातल पर कार्य करने वाली अथवा विद्धान व्यक्त्वि से परिपूर्ण रही होंगी। भविष्य की पीढ़ियाँ जैसे जैसे “डल” होती गयीं उनके समाजिक स्तर में उसी प्रकार उतार का ग्राफ होगा। यदि बौद्धिक व चिन्तनशील होंगे तो ग्राफ ऊपर चलता दिखाई देगा।
राजनीति को लेकर बहुती बड़ी बहस होती है कि यह अपराधी तत्व के हाथ चली गयी है। राजनीति में धन तो चीनी की तरह घुल गया है। पहले सोचो यह स्थिति लाया कौन? स्वतन्त्रता के तत्काल बाद के चुनावों में एैसा नहीं था। धन-पतियों ने नेता को प्रभावित करने के लिए चुनाव में संसाधन देकर प्रलोभन की आदत डाली, बाहूबलियों ने बूथ संभाला, बाद में दोनों वर्ग ने अनुभव किया कि नेता की दोनों वैसाखियों तो वे ही हैं। अत: क्यों न स्वंय ही चुनाव मैदान में उतर जायं। चुनाव जीतने के बाद इन लोगों का समाज के सरोकार केवल धन वसूली, जमीनों पर कब्जे तक सिमट गया।
तो क्या राजनीति ऐसे ही चलेगी? मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। जब आप क्लास में पढ़ते थे, तब आगे की सीट पर होशियार माने जाने वाले विद्यार्थीयों को बैठाया जाता था। ध्यान कीजिए, किसी दिन आगे की सीट का कोई विद्यार्थी नहीं आता तो उसके पीछे वाला आगे आ जाता। इस क्रम में सबसे पीछे वाला भी एक सीट आगे आ जाता। यह संदेश ध्यान से समझने का है अर्थात् क्लास में आगे की सीट कभी खाली नहीं रहती। इसी प्रकार राजनीति में कभी सीट खाली नहीं रह सकती। यदि समाज की बुराईयों से त्रस्त होकर बदलाव के इच्छुक युवा राजनीति में नहीं आयेगे तो भी सीट खाली नहीं रहेगी। कोई तो बैठेगा ही, यदि अच्छे नहीं बैंठेगे तो जो अच्छे नहीं कहलाते हैं वे बैठगें।
अब आप समझ गये होंगे कि राजनीति को अपराधियों का दरिया किसने बनाया। अपने निर्मल व न सड़ने वाले जल प्रवाह की हमारी गंगा माँ भी गंदगी डालने से प्रदूषित हो रही है। देश का ऊर्जा युक्त युवा आगे नहीं आया तो राजनीति भी प्रदूषित होती गयी।
सफाई अभियान आप चलाईये। परिवार की जीविका कौन देगा? यह सवाल सामने आयेगा तो किसने कहा कि सुबह से शाम आवारा घूमना राजनीति के लिए अनिवार्य शर्त है। आप अपना कारोबार करें। उद्यम करें। निजी या शासकीय सेवा में जायं पर, कुछ पढ़ना और सोचना न छोड़े। आमतौर से रोटी का सकून मिलते ही टी.वी. ऑन होता है। परन्तु स्वाध्याय नहीं होता है। आप समय सारणी बनाकर व्यवस्था को समझें, इसमें आप की जीविका और राजनीत के लिए समय का संतुलन बनाया जा सकता हैं। चिंतन व स्वाध्याय से मस्तिष्क परिपक्व होता रहेगा। सबसे अधिक हानि आज की अधकचरी बहस से है जिसे धर्म व जाति से जोड़ कर एैसा बना दिया है कि जब भी छनन करो तो गंदगी ही मिलती है।
राजनीत को समझना भी राजनीत में भाग लेने जैसा है। व्यवस्था समझ लेने के बाद किसी दल के सदस्यता न होते हुए भी वोट डालते समय आंकलन विचार धारा के अनुसार होगा। आपकी विचार धारा वहीं होगी जो आपने चिंतन के बाद आपने मस्तिष्क में सोची हुई है। कम से कम इतना असर अवश्य होगा कि आप राजनीतिक दलों के लोग लुभावन नारों में नहीं भटकेंगे। ध्यान रहे “भले लोग इसलिए हार जाते हैं कि भले लोग वोट डालने नहीं जाते” इसलिए वोटों का ध्रुवीकरण विचारों से भटका कर धन बांटने के मार्ग पर कर दिया जाता है। युवा आवाज उठायें और अच्छे लोगों के साथ दो मिनट खड़े होकर देखें। हमने सुना है कि डा. राममनोहर लोहिया जहाँ भी जाते विद्यार्थी उन्हें घेर कर उनकी बातें सुनते थे। वे जीवन जीने का सच बताते थे जिसमें जिन्दादिली के साथ आगे बढ़ने के आचरण की व्याख्या होती थी। सब युवा राजनीति में नहीं जा सकते। सब प्रशासनिक सेवा में भी नहीं जा सकते परन्तु यह भी सत्य है कि जिसने भी ठान ली उसे बढ़ने से कोई रोक नहीं सकता।
फिर बात वहीं आयेगी कि ज्ञान रहित शिक्षा जो आजकल स्कूल कॉलिजों में परोसी जा रही है वह व्यक्तिगत विकास में क्या योगदान कर पायेगी? जब व्यक्ति असहाय होता है तो मदद के लिए पुकारता है। इसी प्रकार क्षमता के अभाव में व्यक्ति चापलूस हो जाता है।
मैं युवा वर्ग से इतना ही कहूंगा कि कभी कुंठा में न आयें और न ही कभी अवसाद {डिप्रेशन} में जायें। जितनी चोट लगे उतनी ही अधिक शक्ति से प्रतिकार करें। असफलता को सफलता का द्वार बना दें। दिल टूटे तो आंसू व बोतल का सहारा लेने के बजाय सिद्ध कर दो कि तूने ठुकराया भले ही हो समाज मुझे अनदेखा नहीं कर सकता। एक दिन दिल तोड़ने वाले को ही मलाल होगा कि मैंने एक नेक व समाज के लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति की उपेक्षा कर गलत किया।
अपने सम्मुख आदर्श व्यक्तियों का जीवन रखो। आपको उनसे प्रेरणा मिलेगी। जब भी हम अपराधी को समाज में धनवान के रूप में देखते हैं तो मन में ईर्ष्या होती है। ईर्ष्या वहीं होती है जहाँ समान दृष्टिकोण होता है अर्थात् आप भी अन्त: मन में अपराध की दुनिया से धनी बनना चाह रहे हैं। यहीं तो गलती है, फिर आप तथा उस अपराधी के विचार तो एक जैसे हो गये। अब्राहिम लिंकन न असफलता से डरे न गरीबी से, इसलिए एक दिन विश्व इतिहास पुरूष बने।
कभी आपने महसूस किया कि आपकी गली की स्ट्रीट लाइट खराब हो गयी तो आप ने भुनभुनाने के अलावा क्या किया?
एक कागज उठायो और लिख दो निकाय अधिकारी को। आपके कार्यालय या कॉलिज का मार्ग टूटा-फूटा गड्डायुक्त है। परन्तु वार्तालाप में अफसोस करने वाले तो मिलते है परन्तु शिकायती पत्र लिखते इक्का-दुक्का ही देखे। आपके पत्र चमत्कार पैदा कर सकते हैं। सरकारी योजनाओं पर निगाह रखो, हो सकता है कि उनमें से किन्हीं के लिए आप या आप का परिचित सुपात्र हो। यदि पात्र आवेदन नहीं करेंगे तो कृपात्र जुगाड़ कर वजीफा ले लेगा। आपके आवेदन पर सकारात्मका कार्यवाही न होने की दशा में आर.टी.आई. का सहारा लो। अधिकारी पक्षपात करने से डरने लगेंगे।
विधि स्नातक होकर चपरासी की नौकरी ढूंढ रहा व्यक्ति पहली ही नजर में अपनी कमजोरी दिखा रहा है। यदि अभिव्यक्ति की ताकत आपकी शैली में नहीं है तो कानून की पढ़ाई क्यों की? किसी रोजगार परख कार्य को सीखा होता तो चपरासी से अधिक आय होती। राष्ट्र के अनेक प्रतिभावान खिलाड़ीयों ने बहुत जल्द पढ़ना छोड़कर खेल के अभ्यास मैदान पर जाना आरम्भ्ा कर दिया। वे इतनी सफलता पढ़कर नहीं पा सकते थे। कहने का मतलब है अपना रूझान देखिए, जहाँ दिलचस्पी है, वही कार्य पकड़ो, एक दिन पहचान अवश्य मिलेगी।
निश्चिततौर से पढ़ाई का ढर्रा खराब है। हमें परम्पारिक शिक्षा दी जाती है जिसका कोई उपयोग नहीं है। मैं उसी पढ़ाई को पढ़ना चाहता हूं जो मुझे मेरे लक्ष्य तक पहुंचा सके। शिक्षा व्यवस्था में इसी को आधार मानकर बदलाव लाना होगा।
देश में बेरोजगारी है चार करोड़ से अधिक बेरोजगार है। छँटनी भी बहुत हो रही है। कम्प्यूटर के बाद बीस-बीस व्यक्ति का कार्य एक कम्प्यूटर कर रहा है। छोटे व कुटीर उद्योगों की तरफ रूझान करो, सरकार भी छोटे कुटीर उद्योगों को बढ़ाना चाहती है। केवल नौकरी की आस में अधेड़ बन जाने की इच्छा यह अभिव्यक्त करती है कि मन में कहीं न कहीं सरकारी नौकरी मिलने की इच्छा मात्र इस भावना के साथ है कि काम नहीं करना पड़ेगा। दूसरी ओर बहुतों ने बड़ी ओहदेदारी नौकरी छोड़ कर गैर सरकारी संगठन चलाना आरम्भ्ा किया है। परन्तु ऐसे कार्य संकल्प के साथ ही सफल हो सकते हैं।
देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है यानी खेत में खरपतवार बढ़ रही है। यदि नही उखाडोंगे तो एक दिन गेहूं को भी ढ़क देगी। इसी प्रकार भ्रष्टाचार से नहीं लड़े तो भ्रष्मासुर बन जायेगा।
उठो अँगड़ाई लो और नई सोच के साथ नई संभावनाएँ तलाशें, काम तो सभी करते है पर करने का ढ़ग महान बनाता है।
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