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कभी शहर कस्बों की दीवारों पर लगने वाले इश्तहार वांछित व्यक्तियों की फोटो के होते थे। स्क्रीन प्रिन्टिंग की सस्ती तरकीबों की इजाद से अस्सी के दशक में बैनरों का चलन हुआ जिसमें फोटो छाया के रूप में होती थी। उससे पहले पेन्टर द्वारा हाथ से लिखे बैनर कार्यक्रम आयोजन स्थलों पर ही होते थें। फलेक्स प्रिंटिग आने के बाद विज्ञापन क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा ने कमाल दिखाया तो समाजिक व राजनीतिक विज्ञापनों में भी नई तकनीकी आ गयी।
अब तो फोटो टांगने का जैसे अवसर ढूंढा जाता हो। शहर अनावश्यक बैनरों से पटे रहते है। कभी सत्तर के दशक में बताते है कि देश के दो बड़े तस्करों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ आदमकद फोटो अपनी बैठकों में लगवा दिए थे। आमजनों के यहां भी नामचीन व्यक्तियों के साथ खीचें गये फोटो अपने घर के मुख्य बैठक भाग में लगाने का रिवाज है।
परन्तु जो नई कल्चर आई है, उसमें सेलेब्रेटी के साथ फोटो की आवश्यकता नहीं है। बैनर पर प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री व मंत्रीयों के साथ अपने फोटो प्रिंट कराकर प्रचार को आगे बढ़ाया जा सकता है। इसी का लाभ लेकर अपराधी तत्व स्वमेव अपना फोटोयुक्त बैनर सत्ताधारी नेताओं के साथ लगवा देते हैं। इस शेखीखोरी से यद्यपि कोई समझदार प्रभावित नहीं होता फिर भी आज के सभी प्रदूषित तत्वों को विभिन्न माध्यमों से नदियों में उड़ेलने की तरह राजनीति के अमृत सागर को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही हैं।
इन होर्डिग या बैनरों पर लगी फोटो से कौन-सा वर्ग प्रभावित है?
सम्भवत इलाके की चौकी का सिपाही, क्षेत्र का विद्युत विभाग का लाइनमैन या ऐसे ही दो चार सरकारी कर्मचारी जो रोजमर्रा की वैद्य अवैद्य गतिविधियों में मदद करते रहे होंगें। यह मदद भी बिना फीस नहीं होती, बस अपने को नेता कहकर पुलिस चौकी पर बैठने को कुर्सी मिल जाती है। मैं नहीं मानता कि इन फोटोओं को कोई गम्भीर व्यक्ति देखता भी होगा। यह भी नहीं माना जा सकता कि पुलिस प्रशासन के बड़े अधिकारी तो क्या थाना इंचार्ज भी ऐसे फोटो को संज्ञान में लेते होंगे! और यदि कहीं ले रहे हैं तो लेना नहीं चाहिए।
चलन का फायदा उठाकर छोटे बड़े अपराधीयों द्वारा स्वंय टंगवायें गये बैनरों कि स्क्रीनिंग करने से अच्छा है कि स्थानीय निकाय इनसे अन्य विज्ञापनों की तरह टैक्स वसूली करें तथा राजनीतिक दलों के जिला व महानगर स्तर पर अध्यक्ष की अनुमति के बगैर बैनर न लगा सकें।
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