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बढ़ती बेरोजगारी
भारत की वर्तमान सत्ताधारी पार्टी से देश का युवा हतोत्साहित है। विगत शासन में भी रोजगार सर्जन के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं हुआ। 2014 के चुनावों में भाजपा की ओर से लगातार प्रचार किया गया कि सत्ता में आने पर रोजगारोन्मुख योजनाएं लाई जाएंगी परन्तु सवा वर्ष बीत जाने के बाद भी रोजगार के आकड़े पीछे की ओर लुड़क रहे हैं। 1992 से वैश्वीकरण का दौर शुरू होने के बाद देश का युवा एवं मजदूर वर्ग सर्वाधिक चोटिल हुआ। यह समझ से परे है कि शासन की नीतियां किस वर्ग के लिए हैं। आजादी के सात दशक बाद भी बहत्तर करोड़ की आबादी पेट से जूझते हुए असफल रही है। ऐसे में देश को विकासशील कैसे माना जा सकता है? केन्द्र की सत्ता के लिए राजनीतिक धमासान करने वाले दलों को सटीक व्यवस्था की रूप-रेखा देनी होगी जिसमें देश के समस्त ज्वलंत मुद्दों के लिए व्यवहारिक विकल्प प्रस्तुत करने होगें।
आगामी चुनाव में जनता उन लोगों को नहीं सुनेगी जो समस्याओं का समाधान करने का वादा करेंगे। इससे पृथ्क उन लोगों की बातों पर विश्वास होगा जो समाधान की रूप-रेखा सम्पूर्ण प्रक्रिया के साथ रखेंगे। आर्थीक मोर्च पर मिल रही नाकामयाबी, काले धन की बात का ऊड़न छू हो जाना, सीमाओं पर बड़बोलेपन के शब्दों की गूंज का शान्त हो जाना, महिला व बाल सशक्तिकरण पर बचकानी बातें करना, दलित सोच पर कुंद हो जाना, रेल व वायु सेवा के प्रति लापरवाही बरतना, सड़कों पर टोल के अवरोध, स्वच्छता का नारा परन्तु गंदगी का विद्यमान रहना, सांप्रदायिक और आंतकवादी गतिविधियों का बढ़ना आदि अनेक ऐसे मुद्दे है जिस पर दूध के जले की तरह आगे विश्वास करने के बजाय फूक-फूक के कदम रखेगें। पर्यावरण और जलवायु, औद्योगिक एवं कृषि का राष्ट्रहित में साम्य बैठाने के लिए कागज पर अग्रिम नीति चाहिए।
यही नहीं, सत्तर सालों मे केन्द्र की सत्ताधारी पार्टीयों ने पर्वत नीति, पथ्थर नीति, रेशम नीति, दवा मूल नीति जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर कोई ठोस प्रस्तुतीकरण नहीं दिया। इसलिए 2019 की तैयारी भारत की युवा पीढ़ी अब स्वंय अपने ऊपर लेकर करेंगी।
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