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स्मार्ट से पहले क्लीन सिटी व स्मार्ट विलेज

gopal agarwal
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भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को बच्चों से बहुत प्यार था। पं. नेहरू बच्चों को देख गोद में दुलार व प्यार से थपथपाते व पुचकारते थे। ये बातें किसी आलोचना या प्रंशसा में न लिख केवल समीक्षात्मक भावना से लिख रहा हूं। बच्चों के इस असीमित बात्सल्य प्रेम में कोई फोटो ऐसा नहीं देखा जिसमें झोपड़-पट्टी के बिना नहाये, चेहरे पर पपड़ी व बहती नाक के बच्चे की तरफ उनका ध्यान गया हो। सुंदर कपड़ो, तरतीब वालों व साज सज्जा युक्त बच्चे ही गोद में दीखे। स्मार्ट से प्यार होना बुरी बात नहीं, स्मार्ट सभी को पसंद हैं परन्तु समावेशी विकास के ऐजेन्डे पर चलने वालों की नजर देश के एक सौ पच्चीस करोड़ को देखती है।
समावेशी शब्द का प्रयोग पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम बहुत करते रहे हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री भी प्रत्येक भाषण में एक सौ पच्चीस करोड़ देशवासियों को ही सम्बोधित कर बोलते हैं तथा स्मार्ट शब्द इन्हें भी पसंद है। इसलिए 1609 में से 100 शहरों को स्मार्ट बनाने की घोषणा हुई। देश में एक प्रतिस्पर्धा चल निकली कि वे 100 शहर कौन से होंगे जिन पर केन्द्र सरकार की विशेष कृपा होगी। प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ में सबको हक था। सभी अपने अपने शहरों को स्मार्ट की सूची में सम्मलित होने की रहा देखने लगे। स्मार्ट का दर्जा मिलने के बाद शहर के साथ क्या विशेष बर्ताव होगा? इसकी बिंदुसार व्याख्या तो नहीं मिली, अलवत्ता ज्ञात हुआ कि कुल 500 करोड़ रूपये केन्द्र द्वारा इन सौ शहरों के लिए आंबटित होगे तथा संबधित राज्य भी इतने ही बजट का प्रविधान अनुपात में अपने अपने यहां करेंगे। धन का आंबटन आबादी क्षेत्रफल आदि कई बिंदुओं को ध्यान में रख कर किया जाएगा अर्थात् प्रत्येक शहर को 5+5 करोड़ मिलेंगे ऐसा नहीं होगा। यह भी जरूरी नहीं कि स्मार्ट के लिए चयनित शहर के सम्पूर्ण क्षेत्रफल का चेहरा निखार होगा। उनके किसी एक भाग या भूखंड विशेष पर भी विकास केन्द्रित हो सकता है। कुल मिलाकर क्षेत्रवासियों को स्मार्ट का दर्जा तथा भवन निर्माताओं को भविष्य का व्यापार खूब गुदगुदा रहा है।
भला, सौ शहर स्मार्ट बनें, इसके विरोध का कहीं कोई औचित्य नहीं है, फिर भी कुछ प्रश्ननों के साफ उत्तर जनता के सम्मुख अवश्य आने चाहिए। जब हम स्मार्ट बनाए तो भारत के तीन चौथाई भाग को क्यों कर भूले और स्मार्ट विलेज का विचार क्यों नहीं आया। स्मार्ट सिटी की नियामवली न आने से अनेक भ्रान्तियां फैल गयी। एक टी.वी. बहस में बताया जा रहा था कि शहर को स्मार्ट बनाने के लिए अतिरिक्त संसाधनों के लिए वहां के निवासियों से अतिरिक्त टैक्स लिया जाएगा। यह भी कहा गया कि स्थानीय संसाधनों को मजबूत करने के लिए चुंगी लगाई जाय तथा सड़कों के कुछ कि.मी. अन्तराल पर टोल वसूला जाय। मैं गणित के विषय में अधिक नही जानता परन्तु इतनी गणना अवश्य समझता हूं कि चुंगी तथा टोल की वसूली में भूमंडल के सीमित भंडार वाले ईधन की तुलनात्मक बर्बादी अधिक है तथा चुंगी व टोल की प्रसव पीड़ा भ्रष्टाचार को ही जन्म देती है।
सौ शहर स्मार्ट बनने की प्रसन्नता तो वहां के निवासियों को होगी ही, परन्तु बच रहे बाकी क्षेत्र उपेक्षित या ग्लानि का शिकार हुए हैं। विकास पर जोर देने के लिए प्रत्येक संसद सदस्य से अपेक्षा की गयी कि वे एक ग्राम को आदर्श बना दें। वह लक्ष्य भी पूरा नहीं हुआ है।
किन्तु सोचने का तरीका बदलते ही समास्याओं का समाधान आने लगता है। परिवर्तित राजनीति, जिसे विकल्पित कहना उचित नहीं होगा, का दौर शुरू करने के लिए समय से आगे सोचना होगा। स्मार्ट से पहले स्वच्छता की आवश्यकता है। देश को स्मार्ट की नहीं स्वच्छता की प्राथमिकता रखनी होगी। सौ स्मार्ट शहर से पहले प्रत्येक शहर, गांव व कस्बे को स्थानीय निकाय स्वच्छ बनाने की मुहिम चलायें।
वास्तविकता है कि पांच करोड़ में पांच मौहल्ले स्मार्ट नहीं बन पायेंगे परन्तु आत्मविश्वास, परिश्रम व ईमानदारी से प्रयास करें तो प्रत्येक वार्ड, पंचायत, शहर अपने बूते साफ हो सकता है। नदियां देश की तो नालियां शहर की जीवनदायी रेखाएं हैं नाली रूके तो जिन्दगी ठहरी लगेगी। मार्ग में कूढ़ा पड़ा तो सूर्य की सुनहरी किरणें भी बोझिल लगेंगी। इसलिए किसी को भी उपेक्षित का अहसास न देकर सभी को साफ सफाई की ओर प्रेरित किया जाय। कूढ़ा डालकर फोटो खिचानें वाली सफाई नहीं वरन् बुहार कर घर आंगन के बाद यदि गली भी साफ दीखे तो मन मे प्रफुल्लता स्वयं ही आ जायेगी। परिवर्तित राजनीति में महापौर से लेकर सभासद तक सभी के लिए भविष्य की राजनीति प्रथम उत्तरदायित्व की ओर इशारा कर रही है।

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