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आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ का दिन नजदीक आते आते यह बहस उठ गयी कि क्या देश पुन: आन्तरिक आपातकाल की ओर जायेगा? केन्द्र सरकार के रूख को भांप कर भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री लालकृष्ण अडवानी स्वंय प्रश्नन कर चुके हैं कि क्या लोकतन्त्र कुचला जायेगा? इससे भी कठोर प्रश्नन है कि क्या भारत पुन: गुलाम होगा? हांलाकि गुलामी नितांत असम्भव है, तो दूसरा प्रश्नन कि क्या भारत आर्थीक गुलामी की ओर जायेगा?
मस्तिष्क में उभरते इन प्रश्ननों पर चिन्तन से पहले याद कर लें कि भारत में ब्रिटिस राज आर्थीक तंत्र के जरिए ही आया था जिसने अपनी फोज बना कर भारत पर हुकुमत कायम कर ली थी।
25 जून को आपातकाल की चालीस वीं सालगिरह पर लखनऊ में बैठक करने की भूमिका मार्च में ही बन गई थी। केन्द्र सरकार की चाल, बातें व बोल एकाधिकार की लय में आरम्भ से ही रहे। सरकार बनने के बाद जनविरोधी फैसलों पर जन भावना के विरूद्ध सरकार की जिद, नेता की आत्ममुग्धता, भूमि अध्यादेश पर अड़ियल होकर एक के बाद एक अध्यादेश की पुर्नावर्ति, एफ.डी.आई. आदि निर्णय शंका के शूल चुभो रहे थे परन्तु अडवानी जी ने तो उस चुभन को खुजला दिया। एक महत्वपूर्ण तथ्य में हमें याद रखना होगा जब शशीभूषण ने सीमित तानाशाही का जुमला उछाला तो समूचे भारत के समाजवादी एक होकर मुकाबले के लिए आ गये थे।
तो क्या हम मानें कि हम आपातकाल की ओर बढ़ सकते है? प्रत्येक 15 अगस्त व 26 जनवरी को स्कूलों में छोटे बच्चों से लेकर फौज तक अपनी आजादी को मिटने नहीं देगें कि कसमें खाते हैं और सच में, भारत का एक-एक भारतवासी कुर्बान हो जायेगा परन्तु गुलाम नहीं होगा। परन्तु क्या हमने दूसरी तरफ भी कभी सोचा कि आर्थीक गुलामी ने हमारे दरवाजे पर चुपके से दस्तक दे दी तो क्या होगा?
भाजपा के चुनाव प्रचार में पूंजी के समुद्र उमड़ पड़े थे। ऋण को उचिंत करने के लिए सरकार व पूंजीपतियों का प्रणय किसी से छिपा नहीं है। प्रेम ग्रान्थि सिर पर चढ़कर बोलने लगे तो कुछ भी असम्भव नहीं है। आपातकाल नहीं तो अन्तरिम आर्थीक आपात की सम्भावनाएं बन सकती है। ऐसे में हमें देश की आजादी की रक्षा के संकल्प के साथ आर्थीक गुलामी से चोटिल न होने की कसम भी खानी पड़ेगी।
यह देश किसी एक दल का नहीं है। शासन का अधिकार सर्वाधिक जनादेश पाये दल का होता है। सभी राजनीतिक दल सवा करोड़ जनता के बीच से उभरे हुए संगठन है। इस पर दो चार हजार पूंजी सम्राट अपना अधिपत्य कायम करना चाहे तो क्या सत्तर प्रतिशत किसान, आठ प्रतिशत व्यापारी, बीस प्रतिशत नौकरी पेशा पूंजीपतियों के एकाधिकारवादी अस्तिव के लिए नहीं है। फिर हमारे पत्रकार, डाक्टर, अध्यापक और तमाम बुद्धिजीवी हैं जो देश को जगाये रखेगे। सब कुछ होते हुए भी हमें चौकस रहना है।
चालीस वर्ष पहले घोषित आपातकाल में तत्कालीन सत्ताधारी व उनके सहयोगी दलों को छोड़ बाकी नेता कैद कर लिए गये थे। उस समय समाजवादीयों की विशेषतया रही थी कि कैद हो या फरारी परन्तु माफी नामे से दूर रहे। हमने 1942 के आन्दोलन को पढते हुए भी जाना कि डा. राममनोहर लोहिया व जयप्रकाश जी जैसे समाजवादी नेता जेल के बाहर भारत छोड़ो आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे।
मेरे साथीयों हाथ ऊंचे कर मुदी कस कर कह दो कि 25 जून 1975 जैसा काला दिन देश के इतिहास में दोहराने नहीं देगें।
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