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ब्रिटेन के साथ भारत के दोस्ताना रिश्ते हैं। परस्पर सहयोग का आदान-प्रदान है, पर कभी 1942 में “करो या मरो” के नारे के साथ “अग्रेंजो भारत छोड़ो” कह कर ब्रितानियों को खदेड़ा जा रहा था। भारत की आजादी की लड़ाई में अनेकों महानतम विभूतियां जुड़ी थी। संदर्भ के लिए इतना भी जानना चाहिए कि 1942 के आन्दोलन को जेल के बाहर से डा. राम मनोहर लोहिया व श्री जयप्रकाश नरायन ने नेतृत्व किया था। महात्मा गांधी व कांग्रेस के नेता 8 अगस्त 1942 को बम्बई में गिरफतार कर लिए गये थे। बाद में श्री जय प्रकाश नरायन जे.पी. के नाम से सुविख्यात हुए तथा 1974 के सम्पूर्ण क्रान्ती आन्दोलन के नेतृत्व पर लोकनायक कहा गया।
पुन: विषय पर आते हैं। आपके घर के मुख्य दरवाजे पर पड़ोसी अपना वाहन खड़ा कर दे तो पहले आग्रह करोगे। न माना तो पुलिस को कहोगे, परन्तु महज इतनी बात पीढ़ियों की शत्रुता का कारण नहीं हो सकती। सभ्य व लोकतान्त्रिक समाज में विचार भिन्नता हो सकती है परन्तु शत्रुता नहीं होती। आवश्यक नहीं कि आज जिसकी बातों या आचरण से हमें कठिनाई है तो उससे पीढ़ियों तक संबध खारिज रहें। कहने का सार यही है नैतिकता व सिद्धान्तों की लड़ाई में पक्षकार निजी शत्रुओं के रूप में नहीं होते। आज एक दल के साथ तालमेल है तो आवश्यकता पड़ने पर किसी दूसरे के साथ भी हो सकता है परन्तु जिन मूल्यों को लेकर मत भिन्नता है उस पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए कभी कांग्रेस के एकाधिकारवादी रूख के विरूद्ध सभी राजनीतिक दल लामबंद हुए तो सांप्रदायिक ताकतों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए कांग्रेस का साथ लिया गया।
कभी तानाशाही की डगर पर बढ़ती श्रीमती इंदिरा गांधी के विरूद्ध समाजवादी व जनसंघ सहित सभी दल मिल कर लड़े तथा आन्दोलन किया, क्योंकि प्राथमिकता राष्ट्र में लोकतन्त्र बचाने की थी। सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की मदद में राहगीर पार्टी, धर्म, जाति या रंग नहीं देखता, उस समय फौरी आवश्यकता अस्पताल पहुंचने की होती है। इंसान तो क्या एक राष्ट्र की सीमा पार से उड़ कर आ गये कबूतर के पंख नोचे जाने पर हमारे राष्ट्र का सदभावी अपने घर इलाज कराने ले गया।
इस समय किसान उजड़ा हुआ है, व्यापारी भविष्य को लेकर चिंतित हैं, श्रमिक निशाने पर हैं, बेरोजगारों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ रही है, पढ़ाई के संस्थान निजी प्रोडक्शन हाउस हैं। जाली डिग्री के किस्से यहीं से शुरू हुए। {जिस पर कभी विस्तार से बता देंगे} रेल यात्री गन्दगी व लेटलतीफी के कहर में हैं। ऋण देने में बैंक शासक दल की आंख का इशारा देखते हैं। बीमा कंपनी किसानों को ठग रही हैं। जिसे कभी “नीरो वंशी बजा रहा था”कहते थे; उसे अब “आत्ममुग्धता में मस्त होना” कह सकते हैं। यानी समस्याओं से सरोकार नहीं है। सोच का “थीम” मात्र यह हो कि“मैं केवल उसके लिए कार्य करूंगा जिसने चुनावों में मुझे उपकृत किया।”यह राजनीतिक नहीं है। प्रंशसा से फूलते गुब्बारों पर तानाशाही की शब्दावली के उभार दीखने शुरू हो गये है, उससे सतर्क होना समय की आवश्यकता है। श्रीमती इंदिरा गांधी बहुत बौद्धिक परिवार में जन्मी थी। अतिकुलीन परिवार में होते हुए भी उनके पूर्वजों ने अग्रेजों से भी अधिक प्राप्त सुविधाओं को त्याग कर संघर्ष किया तथा अनेकों बार साधारण कैदी की तरह जेलों में रहे। यह नहीं माना जा सकता कि इंदिरा जी “बाई बर्थ” मन से आपातकाल का सपना लिए हुए थीं। वे समाजवाद को भी समझती थी और जून 1949 में डा. राममनोहर लोहिया को अपने पिता की सरकार द्वारा जेल भेजे जाने से आहत हुई थीं। परन्तु जिन्दा समाज में कोई नथुने फुला गर्दन ऊंची कर दाये बायें से अपनी अधिक ऊंचाई का विचार लाये तो चापलूस महिमा मंडन के लिए गुंड के ढेले पर लिपटे चींटों की तरह लिपट लेते है। वे सम्भवत नहीं जानते कि चींटे चिपटे गुड़ के ढेले को फैंकते समय सबसे पहले वे चींटे ही पैरों से अनायस कुचले जाते हैं।
यही महिमामंडन चाटुकारिता व आत्ममुग्धता पैदा करती है। शक्ति प्रदत्ता नेता या धनवान यही सोचता है कि उनके तलबों को हथेली पर लेकर चलने की विनती करने वाले मनुष्य उसके व्यक्तित्व के फैन है जो उसके तलबों को धूल कण से गन्दा भी नहीं होने देना चाहते। यहीं से बड़े-बड़ों का मन बदल कर अंहकारी हुआ। भारत ही नहीं विश्व में, वर्तमान ही नही पौराणों में, किस्से कहानियों के यही दृष्टांत हैं तथा अन्त में घमंड चूर की गाथा भी एक जैसी है।
जो व्यक्ति बड़े व्यक्तित्व वाले बने परन्तु लोकप्रियता के साथ साथ कोमल सद्व्यवहारी हुए वही आज दुनिया के महानतम नेताओं की गिनती में हैं।
दिल्ली में अंहकार का धनुष टूट चुका है। धनुष तोड़ने वाले हर युग में राम नहीं होते। यह समूचा विश्लेषण इसी तथ्य पर आधारित है। अंहकार को पृथक-पृथक क्षेत्रों में अपने अपने सार्मथ्य से चुनौती दी जाय। पहले पूंजीवादी व्यवस्था को ललकारने के लिए जहां जिसके पास जो शंख है ध्वनि निकाले। बिहार अगला मुकाम है। सभी दल मिलें, कांग्रेस भी, क्योंकि मुद्दा सत्ता नहीं, किसान है जो बर्बादी की कगार पर है। अगर किसान कमजोर हो गया तो 122 करोड़ की आबादी से 38 करोड़ भूखे सोने वालों की तादात बढ़ जायेगी। दूसरा मुद्दा व्यापारी है, विदेशी आ गये तो देशी व्यापारी को “जरा परे सरक” कह कर जता देगें कि वे बड़ी सरकार के सीधे संरक्षण में है। तीसरा शिकार मजदूर होगें क्योंकि योरोप अमरीका जैसा देश आदमी का काम करने वाली मशीनें बनाते हैं। चौथा शिकार देश के युवा होगा जो बेरोजगारी की कुंठा में देश के भौगोलिक ज्ञान को भूल कर रोजगार के बजाय तंरगीय संचार के तमाशे में अपने को आदी बना लेगा।
मिलकर साथ धक्का देने के अभियान में मेरा पहला आग्रह उन समाजवादीयों से है जो खांटी समाजवादी का रूतवा तो पाये हैं पर लोहिया की इस बात को नहीं समझ रहे कि नारे के शब्दों में लगी मात्राओं की ऋटि निकाल कर अलग ग्रुप नहीं बनाया जाता। भावना, उद्देश्य और लक्ष्य प्रथम हैं। नेतृत्व किसका है, न देख कर जो ज्यादा को जोड़ सका उसे ही सक्षम मानें। आगे की इबादत खुद व खुद बदल जायेगी। क्षेत्रीय दलों की अस्मीता को कोई खतरा नहीं है। 1967 में भी केन्द्र सरकार से पृथक दल की राज्य सरकारें चलती थीं। केन्द्र से खौफ खाना कायरता होगी। आपातकाल में गुजरात में भी गैर-कांग्रेसी सरकार चली। व्यक्तिगत रूप से उन व्यक्तियों से भी समर्थन अपेक्षित है जो वर्तमान में किन्हीं कारणों से या अच्छे दिन के वायदों के पूरा न होने पर भाजपा से बुरी तरह निराश हुए।
यदि बिहार पुन: जीत लिया, उत्तर प्रदेश में प्रतिदिन होते जनकल्याण के कार्यों की प्रंशसा चलती रही तो 1917 के बाद भी बढ़ते रहने का महौल बना रहेगा तब दिल्ली दूर नहीं रहेगी।
गोपाल अग्रवाल
agarwal.mrt@gmail.com
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