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साधारण व्यापारी, श्रमिक और देश का किसान स्थिर अवस्था में क्यों है? किसान नेगेटिव ग्रोथ में है। दरअसल सरकार की नीतियां तय करती हैं कि विकास के वास्ताविक पहियों को कितना समर्थन है। किसान श्रमिक युवा शक्ति मिलकर विकास की गति को तय करते है। फर्क इतना है कि सरकार की नीतियां इनको वांछित समर्थन व सहयोग दें। दुर्भाग्य से स्वतन्त्रत भारत में कांग्रेस ने सबसे लम्बे समय तक राज किया। आगे चार वर्ष तक जिस पार्टी को राज का अवसर मिलेगा वह भाजपा है यह और भी अजीब संयोग है कि दोनों की नीतियां दर्पण के सामने खड़े व्यक्ति व प्रतिविम्ब जैसी है।
विगत चालीस वर्षों में कोई चालीस नाम ऐसे है जो हमारे बीच से राकेट की तरह उड़े और देखते देखते देश के घानाड़य लोगों की कतार में खड़े हो गये इसके दो ही कारण हो सकते है वे अत्याधिक उद्यमी क्षमता के थे अथवा हम क्षमतावान नहीं हैं। परन्तु क्षमतावान न होना अभिशाप नहीं है। कदाचित यह कहना भी गलत है कि क्षमता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति क्षमता से लवालब है। क्षमता के उपयोग करने का स्तर भिन्न हो सकता है। इस बात पर भी अनुसंधान हो कि क्या केवल क्षमता के भरोसे ही व्यक्ति दौड़ रहा है? यदि क्षमतावान को शिकंजे में कस दिया जाय, उसकी हवा पानी की मात्रा को सीमित कर दिया जाय तो वे पिछड़ जायेगा। राजनीति में यह सदा आंखों से देखा जाने वाला साक्ष्य है जिस पर कृपा हो जाय वह रातों रात भाग्य विधाता बन जाता जबकि क्षमता चौखट पर पड़ी, कराहती रह जाती है।
मैं यह बातें चिढ़कर नहीं दूसरे उद्देश्य से कह रहा हूं। गंदे पानी के किनारे बनी दस हजार मुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों के बीच दो बड़े शांपिग माल बन जायं तो क्या ये विकास की परिभाषा में आयेंगे। भाजपा के विचार में यह विकास है। परन्तु विकास समावेशी होता है। समूची आबादी को एक साथ लेकर आगे बढ़ने वाला, उसके लिए नीतियां ऐसी हों कि समूची आबादी को सहयोग मिले। हमें औसत के सिद्धान्त को त्याग कर सतह पर हो रहे कार्य से विकास को नापना है।
सबसे अधिक संख्या किसानों की है कोई सत्तर करोड़ परन्तु इस वर्ग में नकारात्मक वृद्धि है जिसका अर्थ है दुर्दिन, कोई पांच करोड़ व्यापारी है, सुबह से शाम तक जूझते हुए, इनके सपनों में सरकारी मशीनरी का हौवा रात को भी बना रहता है। ये पांच लाख के ऋण के लिए बैंक के इतने चक्कर लगा चुके होते है कि रास्ते के गड्डे व स्पीड ब्रेकर की स्थिति बिना देखे याददास्त के सहारे चले जाते है। वितरण का सबसे बड़ा नेटवर्क होने के बाद भी उत्पादक इनका स्वामी होता है।
श्रमिक कोई सात आठ करोड़, दो करोड़ और अंसगठित जोड़ दें तो दस करोड़, वस्तु की लागत में इनका श्रम नहीं जुड़ता। मैं किसी साम्यवादी ढांचे की बात नहीं कर रहा। इनका वेतन कच्चे माल के साथ उत्पादन लागत में जुड़ता तो है। परन्तु उत्पाद पर होने वाले मुनाफे की किसी भी गणना में श्रम भागीदारी नहीं निभाता। यदि कायदे से बात मान ली जाय और प्रत्येक वस्तु की लागत व मुनाफे के रिश्तें को तय कर दिया जाय तो मजदूर कभी वेतन वृद्धि की मांग नहीं करेगा क्योंकि चीजों के दाम खुद ब खुद सस्ते हो जायेंगे। मंहगाई नारे या झूठ बोलने से नहीं रूकती यदि मंशा है तो मंहगाई पर नियन्त्रण लग सकता है।
किसान व्यापारी व श्रमिक को बढ़ने के लिए ऐसा धरातल मिले जिस में सभी को अवसरों की समानता रहे। तब क्षमता के अनुरूप लोग आगे बढ़ेगे। उस समय बड़े व छोटे के बीच अन्तर की खाई बहुत चौड़ी नहीं होगी।
समस्या का राजनीतिक समाधान निकालने का एक ही तरीका है। किसान व्यापारी व श्रमिक एक संयुक्त मोर्चा बना कर केन्द्र सरकार पर दबाव बनाये, आन्दोलन करें। यह आन्दोलन शुद्ध रूप से सौ फीसदी अहिंसक होगा। हिंसा की नींव पर बनी इमारत कमजोर व अस्थाई होगी।
एक जरूरी काम जो हमें आपको ही करना है महिलाओं को आगे बढ़ाने का। दिल्ली की सरकार का मिजाज इसके समर्थन में नहीं है। यह उसके नारों व बातों तक सीमित है। विशेषतया राजनीति में व उद्यमों महिलाएं आगे आयें परन्तु पति संस्कृति के साथ नहीं, उनका निर्णय स्वतन्त्र होना चाहिए। स्वतन्त्रता आन्दोलन में आज की राजनीति के मुकाबले अधिक संख्या में महिलाएं आगे आयीं।
देश के चालीस करोड़ युवा को मुख्य धारा से हटाकर भटकाव में डाला जा रहा है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में युवाओं को आण्हान किया गया तो वे पढ़ाई छोड़ कर जेल गये। वर्तमान का युवक नौकरी के लिए भटक रहा है। परास्नातक भी सरकारी मिले तो चपरासी को भी तैयार है। वह अपनी पारिवारिक कृषि को अपनी शिक्षा से उच्चीकृत करने का इच्छुक नहीं है। शहर का युवक मौहल्ले में विसायती की या दवाई की दुकान नहीं खोलना चाहता। मेरा आण्हान तो उन्हें ग्रामीण उद्यम में लगने के लिए है। प्राथमिकता डेयरी को हो। केन्द्र सरकार साथ नहीं दे तो दो भैंस से काम आरम्भ कर दें। दूसरी पसन्द फूड प्रोसेसिंग की है। करोड़ो रूपये के फल सब्जियां प्रतिवर्ष देश में सड़ जाते है उन्हें भविष्य के लिए सुरक्षित व मूल्यवर्द्धक बनाने की कुटीर उद्योग प्रक्रियाएं हैं। लज्जत पापड़ एक उदाहरण है। फूड स्लाइस, मुरब्बे, चटनी, जैम व जैली आदि का बड़ा बाजार है। पढ़ाई में एग्रोबेस विषयों को तलाशें। दो दशक से ऐसा बुखार चढ़ा है कि गली गली एम.बी.ए. की दुकानें खुल गयी हैं। लड़के बिजनिस मेनेजमेंट पढ़ना चाहते हैं अब तो एम.बी.ए. वाले क्लर्क बन रहे हैं। अधिक युवाओ को एग्रो तकनीकी पढ़नी चाहिए। हमें अपनी सम्पदा की सुरक्षा से अधिक रिटर्न मिलेगा। खेतों में खाद रसायनों का प्रयोग करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर कृषि सलाहाकार बनें। दो तीन महीनें में दुधारू पशुओं की देखभाल व उनकी खुराक का प्रबन्धन सीख जायेंगे। ये रास्ते आगे जाते है। किसान जागृत होगा तो मौसम पर निर्भरता कम होगी। आपदा में बीमा कंपनी धोखा नही दे पायेगी। मोर्चा सरकार पर दबाव बनायेगा, पिच्छत्तर फीसदी प्रिमियम की व्यवस्था सरकार करेगी। सरकार पर खजाने कहॉ से आयेगा? वहीं से जहां से लाखों करोड़ की रईसों की टैक्स कटौती हुई, बैंकों से दो लाख पिच्चानवे लाख करोड़ रूपया निजी कंपनियां डकार कर बैठ गयी, यह धन जनता के स्तर को उठाने में क्यों नहीं लगाया जा सकता। खराब हो चुके ऋण का पुर्नगठन कर खराब चल रहे खाते को और अधिक ऋण उपलब्ध कराने की व्यवस्था सभी बैंकों में है तो नौजवानों को छोटा उद्योग लगाकर दो चार के रोजगार की व्यवस्था के लिए बैंक सुविधा क्यों नहीं दे सकती? ऐसी योजनाएं केवल कागजों पर क्यों चलती है?
हर समस्या का समाधान मौहल्ले व गली में जाकर खोजें दूसरे लोग है जो मन की बात कहते हुए बम्बई के स्लम निवासियों को हरियाणा के खेत में मकान बना कर देने की बात करते हैं। समाजवादीयों ने बम्बई में मजदूरों की बैंक खोल दी जहॉ बिना ब्याज के मकान-शादी के लिए मजदूर को ऋण मिलता है। 1991 के वैश्वीकरण में विदेशी पूंजी को भारत की धरती पर बादलों की तरह आच्छदित करने के दबाव को कम करने के लिए समाजवादी पार्टी ने व्यापारी के पैरों में बांधी जंजीरों को खोल दिया था वरना सन् 2000 में बेरोजगारों की चार करोड़ की फौज नौ करोड़ में बदल जाती।
जिस राजनीति ने देश को अंग्रेजों के शिकंजे से छुड़ाया उस राजनीति को समझो। हमें सत्ता नहीं साधन बनना है। व्यवस्था परिवर्तन के औजार बनना है। हम चार वर्ष हाथ पर हाथ रख इन्तजार नहीं कर सकते। अपने विरोध को स्वर दो। यदि ये पूंजीवादी सत्ता चार साल में नहीं भी हटी तो दुबारा तो कतई नहीं आयेगी। राजनीति करनी है तो डा. राममनोहर लोहिया को पढ़ो, नेताजी मुलायम सिंह यादव का संघर्ष देखो। आजाद हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्रीयों से बड़ा नाम डा. लोहिया का है। संपूर्ण क्रान्ती के बाद बनी सरकार के प्रधानमंत्री से बड़ा नाम लोकनायक जयप्रकाश नरायन का है। सरकार व पद से बड़ा विचार है। सरकारें चली जाती है सिद्धान्त कायम रहते हैं।
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