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प्रत्येक वस्तु का मूल्य होता है। मूल्यधारक एक से अधिक वस्तु के योग से प्राप्त वस्तु का मूल्य संवर्द्धन होता है। परन्तु, वस्तु का मूल्य क्या हो इसकी निर्धारण प्रक्रिया ही गरीबी, अमीरी, अभाव व कुपोषण की संरचना करती है। इसको बाद में सुविधासम्पन्न व अभागा की श्रेणीयों में विभक्त कर सकते हैं।
वस्तु से जुड़े कारकों को निम्न तरीके से परिभाषित किया जा सकता है।
{1} {2} {3} {4}
कच्चा माल + ऊर्जा + श्रम + समय — उत्पाद
इसमें 2, 3 व 4 समानुपाती हैं। कच्चा माल भी स्वंय में एक उत्पाद है। मान लो लोहा कच्चा माल है तो उस अयस्क को जमीन से निकालने में भी ऊर्जा श्रम व शक्ति लगेंगे। यदि कच्चा माल कृषि उत्पाद है तो उसमें भी श्रम, सिंचाई के लिए ऊर्जा व समय लगेगा। यदि शासक चौकस हो तो फिर किसी साम्यवाद, समाजवाद या पूंजीवाद का नामकरण नहीं करना होगा। यदि श्रम, ऊर्जा व समय के मूल्य की उचित नपाने के साथ गणना हो तो पूंजीवाद का विकास स्वमेव रूक जायेगा। जब कोई व्यक्ति उत्पाद पर नियन्त्रण करता है तो होने वाले मुनाफे में ऊर्जा श्रम संसाधनों को लाभ का अंश नहीं मिलता। ऐसे ही ऊर्जा पर नियन्त्रण रखने वाला उससे अत्याधिक लाभ कमा कर ऊर्जा उपलब्ध कराता है। बिजली के उत्पादन की कीमत तथा समाज में उसे उपलब्ध कराने के मूल्य का अन्तर धनिक वर्ग का निर्माण करता है। मंहगी बिजली का उपयोग कर प्राप्त उत्पाद की कीमत को श्रम की कीमत में कमी कर समायोजित किया जाता है। उत्पादों की श्रंख्ला में गहराई से अध्यन करने से स्पष्ट हो जायेगा कि प्रत्येक अवस्था में श्रम को उचित मूल्य नहीं मिला।
कृषि में भी किसान के श्रम को मूल्याकिंत नहीं किया जाता। सिंचाई के लिए ऊर्जा की कीमत, बीज, रसायन खाद सब मिलाकर फसल के दाम तय करने की मांग स्वतन्त्रता पूर्व से होती आई है। इसमें कृषक का श्रम तथा फसल के अवधि को जोड़ कर मूल्य नहीं निकाला गया। यही कारण है कि कृषक तथा मजदूरों को संगठित करने के लिए मार्क्स को गणित बैटोरना पड़ा।
गुरूत्वाकर्षण का शिकार होकर जब शासन का गठजोड़ बड़ी मुनाफा वसूली संस्थाओं के साथ हो जाता है तो व्यवस्था पूंजीवादी होने लगती है। पूंजीवाद सर्वहार का निर्माण करता है सर्वहारा की धैर्य सीमा का विध्वंस होना क्रान्ती बन जाती है। सभी क्रियाओं की प्रमाणिता को वैज्ञानिक माना जा सकता है क्योंकि सभी चक्र जॉच-परख व सत्यापित योग्य हैं।
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