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26 जनवरी से आगे
आजाद होने के बाद परिंदा उड़ान तभी भर सकेगा जब उसके पंख तरतीव में एक दूसरे के साथ सांमजस्य बनाते हुए फैल सकें। 15 अगस्त पहला चरण था तब केवल आजादी मिली थी। 26 जनवरी राष्ट्र की संवैधानिक व्यवस्था के अन्तर्गत समाजिक सांमजस्य के साथ आगे बढ़ने का आण्हान है।
यदि 26 जनवरी पर मुझे भाषण करना हो तो वह पुरानी घिसी पिटी बातें बिल्कुल नहीं कहूंगा कि यह हमारे पूर्वजों की कुर्बानी को याद करने का दिन है या कि यह उनके बताए मार्ग पर चल कर उन्हें सच्ची श्रंदाजलि देने के संकल्प का दिन आदि, बल्कि कहना चाहूंगा कि 26 जनवरी को एक राष्ट्र जिसे हम प्यार करते हैं और जहॉ हम रहते है, वहॉ रहने वाले सभी नागरिकों के सामाजिक रिश्ते की व्याख्या या परिभाषा मिलने का एतहासिक दिन है।
“राष्ट्र” संबोधन का अर्थ इसी लिहाज से है कि यहॉ रहते हुए सभी देशवासी व्यवस्था को चुस्त रख लोकतान्त्रिक व समाजवादी समाज में सुरक्षित जीवन यापन कर रहे हैं और इस व्यवस्था को दुरस्त रखना वहॉ की सरकार की जिम्मेदारी है।
यहॉ फिर घूम कर पीछे देखना जरूरी है“आजादी के लिए लड़ने वाले कौन थे”? इस सवाल के जवाब में ज्यादातर लोग नाम गिनने लग जायेंगे परन्तु मैं दूसरे अन्दाज में पूछना चाहता हूं जिसका जवाब होगा कि “लड़ाई में सभी लोग सम्मलित थे हिन्दु भी मुसलमान भी”और जो सम्मलित नहीं थे वे ही धर्मिक सहिष्णुता को नष्ट करने का जिम्मा उठाये है। हिन्दू मुसलमान आजादी के संघर्ष में साथ थे तो आजादी मिलने पर भी साथ रहने के हकदार हैं।
जो भारत राष्ट्र में रहते है वे यहॉ के नागरिक हैं जो चले गये वे नहीं हैं। जो आगे आयेंगे या रहना चाहेंगे वे भी नागरिक हो सकते हैं, शर्त वही है कि यहॉ के संविधान की व्याख्या को स्वीकारना होगा।
कुछ इस बात पर भड़क सकते हैं कि नये आने वाले हमारे कैसे हो सकते है? तो उतर भी ऐसे ही है जैसे हमारे भाई बच्चे अमेरिका, योरोप अथवा जापान आदि देशों में जाकर बस गये और वहॉ की नागरिकता ले ली। आज विश्व के अमरीका सहित अनेक राष्ट्रों में महत्वपूर्ण संवैधानिक पदों पर भारत मूल के व्यक्ति विराजमान हैं। उन राष्ट्रों ने भारतीय मूल निवासियों को उनके बौद्धिक-सामाजिक कार्यो को सम्मान देकर बता दिया है कि भारतीयों के संस्कारो में शक्ति है तथा सोच में फैलाव है।
तो क्या हमारी स्वतन्त्रता की व्यापकता संपूर्ण भूमण्डल तक होनी चाहिए? यह तो विश्व नागरिकता का विचार है जिसे डा. राम मनोहर लोहिया ने बहुत जोर से कहा था। अवश्य ही, कभी यह 26 जनवरी के आगे की तारीख जरूर बनेगी परन्तु अभी हमें 26 जनवरी वाले भाग की कुछ चीजें ठीक करनी हैं जिसमें रूक रूक कर धर्म संप्रदाय के भेद रूकावट पैदा कर रहे हैं। दरअसल धार्मिक विरोध विश्व नागरिकता के सिद्धान्त के विरूद्ध षडयन्त्र है। कुएं को अपना कह, उस पर डोर-बाल्टी लेकर बैठ और पैसे लेकर पानी पिला। कौन कहे कुआं सबका है आने जाने वालो का भी हैं। इसे दूसरी भाषा में प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण कहते हैं। इस छिपे हुए एजेन्डे को लागू करने में जो ताकत चाहिए वह सांप्रदायिक भेद पैदा कर मानवीय ऊर्जा को विकेन्द्रीकृत कर पैदा की जाती है। अंग्रेजों ने बॅटवारे से कमजोरी पैदा कर अपने को मजबूत किया। तेल कुओं पर अपनी चौघराहट कायम करने के लिए दस हजार किलो मीटर दूर बैठा बादशाह कितनों ही को भिड़ाए हुए है। हिन्द स्वाराज पढ़ो तो मतलब समझ आएगा, हथियार बनाने वाले के लिए तो लड़ाई ही मुफीद होगी। गांधी जी तो बहुत “बोल्ड” थे वकील डाक्टर सबके वारे में लिख गये, कोई आज वाला लिखे तो भड़कन होने लगेगी।
समझने की खास बात यह है कि खुदा एक है। उसने ही ऊपर नीचे की सारी दुनिया बनाई तो मुसलमान हिन्दु, सिख, ईसाई और बाकी सभी उसी के बनाए हुए हैं। जिसने ईश्वर कहा उसने भी माना कि सबको बनाने वाला एक ही ईश्वर“एको व्रह्म द्वितीय नास्ति”। इसी तरह सभी धर्मों में शक्ति केन्द्र एक ही माना जाता है तो विखराव को मैं षयडन्त्र न कहूं तो क्या कहूं, परिवार के बच्चे मां, मम्मी, अम्मी, भले ही बोलें इससे उनकी माता तो तीन नहीं बन जायेंगी, पूजा पद्धति आस्था की अभिव्यक्ति है। शब्द व तरीके या विधि अलग हो सकती है परन्तु सभी कहना तो यही चाह रहे है कि हम सब कुछ आप {भगवान} पर समर्पित, इसके अतिरिक्त कोई और भाव हो तो बताओ?
जिस दिन बैर दिखाना बंद हो जायेगा राष्ट्र के सम्मुख मुद्दा आर्थीक सम्पन्नता का रह जायेगा। कौन सा अर्थशास्त्र राष्ट्र को आगे बढायेगा? तब उस पर से पर्दा हट जायेगा कि बाहर तमाशा खड़ा कर देश की आधी दौलत एक फीसद की तिजूरी में ठेली जा चुकी है।
जो मैनें अभी लिखा संसाधनों के निजीकरण का षयतन्त्र, यह वही बात है। यही बात आगे जाकर दूसरे राष्ट्रों को खत्म करेगी तब देखना दूर सुदूर संमुद्र में, उठती लहरों से आवाज आयेगी कि देखो मेरी कोई सीमा नही है यह तो इन्सानों ने ही कल्पना करके हिन्द, अरब व बंगाल की खाड़ी जैसे नाम दे दिए है। यह पानी तो संपूर्ण विश्व का है और मनुष्य विश्व नागरिक, परन्तु लगता अभी देर है। 15 अगस्त और 26 जनवरी के बाद इसके लिए कोई दिन मुकर्रद करने को पीढ़ियों तक इन्तजार करना पड़ सकता है। आजाद पंरिदा पिंजरे से छूटा तो, परन्तु अभी इर्द-गिर्द ही पटपटाता उड़ रहा है। उसकी कल्पना में भी है कि उसके आगे की सन्तानों के पंखे, में इतना कसाव हो जो इतना ऊंचा उड़ा सके कि सारा संसार दीखे।
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