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1947 में कांग्रेस सरकार का रूख देख महात्मा गॉधी के दिल पर क्या बीता होगी?, 1977 में लोकनायक जयप्रकाश नरायन ने कैसा महसूस किया होगा? अब अन्ना का दिल केजरीवाल और किरन बेदी के नाट्यशाला में मंचित होते दृष्य देख कर क्या सोच रहा होगा?
सभी ने ठगा सा पाश्चताप किया होगा। ठग प्रपंच कर धन ठगते हैं परन्तु इनके सपने ठग लिए गये। स्पष्ट कर दूं कि महात्मा गांधी, लोकनायन व अन्ना हजारे के व्यक्तिव को समानता के स्तर पर नहीं रख रहा हूं परन्तु वैज्ञानिक आधार पर, जिस प्रकार एक ही ताप और दावब पर विभिन्न पदार्थो की प्रतिक्रियाएं नोटिस की जाती हैं वैसे ही मनुष्यों के मन की संवेदन तरंगें, एक अच्छे उद्देश्य के लिए उपजाये गये आन्दोलन से राष्ट्र की तस्वीर व तकदीर बदलने का, सपना चौपट होते देख तीनों महाचुनावों के मन की तरंगों ने एक ही प्रकार का स्पन्दन करा होगा।
सौभाग्य से अन्ना जी हमारे बीच हैं। उनके मन की प्रतिक्रिया नये आन्दोलन के जन्म की प्रेरणा दे सकती है। परन्तु, फिलहाल अन्नाजी चुप हैं अथवा ईश्वर की तरह सोच रहे हैं कि पुतले बनाए थे प्रेम संसार बनाने के लिए जिसमें अपने खिलौनों को खेलता हुआ देख कर आनन्द की अनुभूति हो, परन्तु ये पुतले जब प्राण वायु से गतिशील हुए तो हिंसा, छल व उपद्रव का घृणित तांडव करने लगे।
कांग्रेस ने सत्ता में बने रहने के लिए अर्थनीति का “रिवर्स प्रोसेस” किया। यानी, जब स्वतन्त्रा के लिए संघर्ष हो रहा था तब गांधी ने कहा कि भारत की आजादी खेतों, मजदूरों की सम्पन्नता के लिए है। खेतों का अर्थकषृक कार्य करने वाले पिचत्तार प्रतिशत नागरिक व मजदूर से सम्बोधन मिल मालिकों के लिए जिनकी मिलें काम कर रहे मजदूरों के हितार्थ चल रहीं हैं इससे कुल भारत की आबादी सम्पन्न होती। इसी के रिवर्स प्रोसेस का अर्थ है “जिन विदेशियों को निकाला उन्हीं की कंपनियां भारत के किसानों की खेती उजाड़कर तथा मिले मजदूरों के लिए न चलाकर देशी विदेशी मालिकों के मुनाफे के लिए चलाई जा रही हैं।” यहॉ भाजपा और कांग्रेस जुड़वा बहने हैं जिनका संघर्ष महज एक दूसरे को धक्का देकर पटरानी बनने का है। जनता इन दोनों के लिए उतनी ही दूर है जितनी अंग्रेजों के जमाने में थी।
तो क्या वैकल्पिक राजनीति का युग खत्म हो गया, नहीं, अवश्य ही जल्दी आयेगा जब अच्छे दिन की माया के काले बादल छंट जायेंगे या जब निराला का स्वर गरजेगा “सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”
गोपाल अग्रवाल
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