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डा0 लोहिया की प्रांसगिकता

gopal agarwal
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कृष्णा ने गीता के द्वारा कर्म का उपदेश दिया। राम ने मनुष्य का आदर्श प्रस्तुत किया। भगवान गौतम बुद्ध और भगवान महावीर के नैतिकता व प्रेम के सन्देश को समूचे विश्व में प्रचारित करने में कहीं कमी नहीं आई। हमारे यहां वेदों के माध्यम से दर्शन की विस्तृत व्याख्या हुई। यहां नानक हुए, कबीर हुए, झूले लाल जैसे सन्त आए। विश्व पटल पर प्रभु इशू व मौहम्मद साहब के मानवता के सन्देश को करोड़ों लोग सुन रहे हैं। गांधी ने निर्बल में हिम्मत की ऊर्जा का संचार किया। पश्चिम में दूषित समाज को रोक कर सुर्केट ने नई परिकल्पनायें की। मार्क्स ने ऊबड़-खाबड़ व्यवस्था की जमीन पर क्रान्ति के बीच बोने की कोशिश की। इन सब बातों की सहज व्याख्या में संघर्ष को जोड़ते हुए इन्सानी जिन्दगी को बेहतर बनाने के लिए लोहिया आगे बढ़े।

लोहिया कंठमाला की अन्तिम कड़ी थे। वे न तो भगवान थे और न ही पैगम्बर, वे संत भी नहीं थे परन्तु, इन तीनों का अध्ययन करने वाले, यूं कहें कि इतिहास, पुराण व दर्शन के मिश्रण का सत प्रस्तुत करने वाले नायक जरूर थे। मनुष्यों के आपसी रिश्ते, कर्म व आदर्शो को आचरण मंल प्रस्तुत करने वाले संसारिक सन्त थे।

भारत धर्म भीरू देश है। इसे नास्तिक देश की संज्ञा नहीं दी जा सकती। नागरिकों की धार्मिक भावनाओं में विभिन्नता हो सकती है किन्तु सभी धर्मों ने मानवता प्रधान संदेश दिए। ईश्वर से जोड़ने के रास्ते अलग-अलग धर्मगुरूओं ने पृथक-पृथक तरीके से परिभाषित भले ही किए हों, परन्तु अन्तिम लक्ष्य सभी का एक है। बुराई की सभी ने निन्दा की है। लोभ, लालच व स्वार्थ की भावना से दूर रहने को कहा है। सभी व्यक्ति अपनी-अपनी आस्था के अनुरूप श्रद्धा से धर्म गुरूओं के प्रवचन सुनते हैं। अपने धर्म की व्याख्या कर आचरण की प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं। इतना सब होने के बावजूद परिस्थितियां नाकारात्मक दिशा की ओर हैं। विश्वबन्धुता की बात तो दूर अभी तो राष्ट्र को खंड-खंड होने से बचाए रखने में ही राजनैतिक ऊर्जा का ह्रास हो रहा है। ऐसे में बींसवी सदी को
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राजनैतिक संत या राजनैतिक ज्योतिषी या कहिए कि दर्शन शास्त्र के बेतरतीब पन्नों के क्रम को पढ़ लेने वाले डा0 राममनोहर लोहिया की वाणी या लेखनी इस समाज को बदलने में अवश्य ही सार्थक होगी। निश्चय ही लोहिया की व्यक्ति पूजा श्रद्धान्जलि नहीं व्यक्ति पूजा को स्वयं डा0 लोहिया पसन्द नहीं करते थे।

लोहिया को न तो आवरण से पढ़ सकते हैं और न ही उनके विचारों के स्तुति गान से कुछ होने वाला है। स्तुति गान तो ठहरवा का द्योतक है, जबकि लोहिया स्वयं प्रवाह थे जिन्होंने किसी बात को पकड़ के बैठ जाना युक्ति संगत नही माना। एक ही नम्बर का चश्मा सभी को फिट नहीं बैठ सकता। हर व्यक्ति विशेष के साथ अलग-अलग नम्बरों को टैस्ट किया जाता है। जब पांच हजार साल का हमारा पौराणिक व आध्यात्मिक इतिहास मानव को सुख-शान्ति नहीं दे सका, मनुष्य का मनुष्य के साथ रिश्ता ठीक नहीं कर सका तो नये तरीके से सोचना अनिवार्य हो जाता है। इसी का नाम लोहिया है। नये-नये प्रयोग करो, रोटी को उलट-पलट कर सेको, जिस करवट जितनी देर आराम मिलता हो उसका परीक्षण करो।

यही तो लोकतंत्र का मजा है। जनता को पूरा अधिकार है कि पलट-पलट कर सरकार देखे। एक से व्यवस्था ठीक न बन सकी तो दूसरे को अजमाया जाये, बात नहीं बनी तो चारों भांति की दाल मिलाकर देखी, मसालों को कमती-बढ़ती कर देखें और ये बातें राजनीति में ही नहीं जीवन के हर क्षेत्र में होनी चाहिए। सबसे अधिक गौर करने की बात व्यवस्था को उलट-पलट कर देखने की है। खाली राजनीतिक दलों की उल्टा-पल्टी कोई अर्थ नहीं रखती।

लोहिया नये-नये प्रयोग के समर्थक थे। विगम पांच हजार वर्ष का लिपिबद्ध इतिहास कर्म और धर्म की व्याख्या है इसलिए राजनीति को मानव धर्म बनाकर “जियो और जीने दो”के सिद्धान्त पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के लिए व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन
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होने चाहिए, इसके लिए सोचो। इसके विपरित यदि धर्म को राजनीति का अस्त्र बना दिया तो धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। धर्म में गन्दी राजनीति की मिलावट की इजाजत नहीं दी जा सकती जबकि गन्दी राजनीति को शुद्ध करते हुए दीर्घकालीन धर्म की ओर बढ़ना ही जीवन का सार है और यही अन्तिम लक्ष्य है। धर्म भी अन्तिम लक्ष्य है। मृत्यु से पूर्व जीवन को शुद्ध करते-करते पारलौकिक शक्ति से जोड़ने का प्रयास या प्रक्रिया, यही धर्म है। हर धर्म में जीवन की यही व्याख्या है। इसी को जीवन का लक्ष्य बताया गया है। धर्म को सहारा बनाकर सांसरिक भोग भोगना किसी भी धर्म की शिक्षा नहीं है। इतना जिसने समझ लिया उसे राजनैतिक निर्णय लेने में कठिनाई नहीं हो सकती। लोहिया को लोग इतना भर ही समझ लें तो नई राह खुल सकती है।

कोई व्यक्ति ला-इलाज हो जाये तो नये सिरे से जांच करो। लोहिया ने भी रूग्ड़ पीड़ित समाज में देखा कि खराबी कहां-कहां हो सकती है? शिक्षा पद्धति देखें, हो सकता है अंग्रेजों की दी पद्धति व्यवहारिक न हो। इस पद्धति में सामाजिक ढांचे व व्यवस्था ज्ञान की तो कहीं कोई बात ही नहीं है। अक्षर ज्ञान के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण विषय है, वह अपने चारों ओर के वातावरण को जानना। प्रत्येक छात्र को कानून पढ़ाया जाना आवश्यक नहीं है परन्तु समाज में उसके कर्तव्य व अधिकारों का ज्ञान जरूर कराया जाये। एक सदी हो गई, सारी ऊर्जा भाषा ज्ञान व मातृभाषा से अंग्रेजी अनुवाद को शिक्षा मानकर बर्बाद की जाती रही है। एक प्रतिशत से भी कम लोगों के अंग्रेजी बोलने-लिखने को पढ़े-लिखे व्यक्ति के रूप में पहचान करने में हम भूल करते आ रहे हैं। सौ साल का यह फॉर्मूला अजमा लिया पर नतीजा नहीं निकल रहा। देश अशिक्षित रह गया, तो छोड़ें इस शिक्षा पद्धति को और दूसरा रास्ता देखें। छात्रों को भाषा की जगह ज्ञान बढ़ाने की बात करो, उसमें जागरूकता बढ़ेगी, उन्हें बताऐं कि सड़क, पानी व बिजली के अधिकार जनता के हैं। बस या ट्रेन में जाने पर उनको क्या सुविधा व बर्ताव की अपेक्षा होनी चाहिए, कहां शिकायत करें, कैसे शिकायत करें? यदि उनका प्रतिनिधि उनके क्षेत्र की नागरिक सुविधाओं के रख-रखाव में दिलचस्पी
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न लेकर दलाली में संलग्न है तो इस मुद्दे को सार्वजनिक कैसे बनाया जाये। समाज शिक्षित व जागरूक होगा तो नेताओं को भले आचरण के दायरे में रहना मजबूरी होगी। जब 97 प्रतिशत जनता ठीक से मनीआर्डर फार्म नहीं भर पायेगी या घर चिट्ठी भी दूसरों से लिखवाकर भेजेगी तो सार्वजनिक व्यवस्था में हो रही गड़बड़ी की शिकायत क्या कर पायेगी। यही कारण है कि अधिकारी बिगड़ैल हो रहे हैं। जो लोग गिटर-पिटर सीख गये या चतुर हैं, वे अपना काम निकाल लेते हैं, बाकी जनता ढोर बराबर, तो कैसे चलेगा समाज और कैसे होगा विकास। फिर यह दोष क्यों है कि विकास के एक रूपये का छियासी पैसा बीच वाले हड़प जाते है। मूल दोष शिक्षा का है तो सबसे पहले उस पर ही नये प्रयोग करो। बाकी तकनीकि शिक्षा की तरफ जिसका रूझान है उसे आगे चलने दो बाकी को सामाजिक, भौगोलिक व राजनीतिक ज्ञान की प्रारम्भिक शिक्षा दी जानी चाहिए।

लोहिया ने सत्ता के विकेन्दीकरण की बात कही। सोचा था एक बिन्दु पर केन्द्रित करने के बजाय इसे नीचे गांव व मौहल्ले तक पहुंचा दो, जितने निचले स्तर पर सत्ता आयेगी, उतना नियन्त्रण पुख्ता हो जायेगा। सोच बुरी नहीं और प्रयोग बुरा नहीं था, परन्तु नीचे वालों ने ऊपर वाले नेताओं की बुराई की नकल कर दी तो भ्रष्टाचार और भयानक हो गया। बड़े तालाब में विष का असर धीरे होगा, जैसे-जैसे विष आगे बढ़ेगा, त्यों-त्यों अपना विषैला प्रभाव दिखला जायेगा, परन्तु छोटे से बर्तन में विष तो डालते ही तांडव रूप दिखा देगा। बड़े व्यापारी ने बड़े नेता के नापाक गठजोड़ के लिए सौहार्द्र बैठकें, बड़े होटल, क्लब, आलीशान बंगले या हवाई जहाज में सैर करते हुए ठेके तय किये तो पंचायत या पार्षद स्तर पर चाय के खोखे की टूटी बैंच या पान की दुकान तक पर यह काम आसानी से हो गया। इसमें निषेधता लाने के लिए प्रयोग किये जा सकते हैं। सार्वजनिक मदों में खर्च की गई राशि की सार्वजनिक घोषणा क्षेत्रवासियों के समक्ष अनिवार्य हो, ऐसी व्यवस्था की जाये, फिर भी उपाय न हो तो आगे सोचा जायेगा। मूल बात यह है कि लोकतन्त्र में सम्पूर्ण पारदर्शी शत-प्रतिशत सुप्रबन्ध के लिए प्रयोगों की श्रृंख्ला जारी
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रहनी चाहिए। यदि सही ढंग से लोहिया को देखा जाये तो उनके विचारों को सिद्धान्त का नाम देकर काठ की तरह पकड़कर नहीं बैठा जा सकता परन्तु उसी काठ को तराशकर बनाये हुए चक्र से उन्हें समझा जा सकता है जो निरन्तर घूमता रहा है, जिसके हर कण को कभी ऊपर तो कभी नीचे जाने का अवसर मिलता है, यही गति है। जब अवसर का सिद्धान्त हर किसी को मिलने लगेगा तो देश में गति आ जायेगी। ठहराव को समाप्त कर हम बढ़ने की कोशिश तो करें, प्रारम्भ में कदम गलत भी हो सकते हैं, लड़खड़ायेंगे भी, परन्तु अन्तत: गति आ ही जायेगी। यदि हम लड़खड़ाहट के डर से स्थायित्व को स्वीकार कर लेंगे तो जड़ता आ जायेगी। और समाज विकास की जगह विनाश की ओर चला जायेगा, जड़ता आने पर आयी हुई सड़ान में केवल परजीवी मौज लेते हैं। लोहिया का व्यक्तिव गतिमान था जो गतिमान विचारों के कारण आज भी है।

विश्व में उपभोक्तावादी संस्कृति इतनी आगे कैसे बढ़ गई? क्योंकि इसमें नये-नये प्रयोग होते रहे हैं, उत्पादक अपने-अपने उत्पादों में नये-नये गुण जोड़ने व बखान करने लगे है। अब स्थिति यह है कि टी0वी0 व फ्रिज का मॉडल दो-तीन साल पुराना होने पर बेकार या असुविधाजनक लगने लगता है। क्योंकि, तब तक वही उत्पादक उसमें कुछ नये “इंडीकेशन” जोड़ देता है। किन्तु हम अपने राजनैतिक ढांचे को चरमराने की स्थिति के बावजूद ढोते रहना चाहते हैं। क्योंकि यह ढांचा कुछ व्यक्ति विशेषों के नपाने के हिसाब से बना है। वे लोग इसे छोड़ना नहीं चाहते दूसरे इसमें फिट नहीं हो सकते। लिहाजा मुखौटों की बजाय नये-नये लोगों के प्रयोग के पक्ष में जॉचे जो नयी शर्तों के साथ सत्ता संभालें और अपनी शर्तों पर खरे न उतरने की दशा में आउट होकर दूसरे बल्लेबाज को मौका दें। हरेक की अपनी-अपनी स्टाइल होगी किन्तु ध्येय मुख्यतया रन बनाना होगा। इसी प्रकार राजनीति में ध्येय जनता को सुविधाओं में अवसरों में समानता देकर राष्ट्रीय विकास की गति तेज करना ही होना चाहिए।

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लोहिया ने राजनैतिक ताने-बाने के साथ आपसी सम्बन्धी की संरचना की भी व्याख्या की। औरत व मर्द के बीच, पलटन व देश के बीच, पुलिस व जनता के बीच। हर व्यक्ति एक दूसरे के कुछ अधिकारों व कुछ कर्तव्यों के साथ जुड़ा हुआ है। उचित एवं अनुचित प्रत्येक के बीच है। जिस तरह से खुरदुरापन दो चक्रों के बीच के घर्षण को बढ़ा देता है जो गति में बाधक है। इसी तरह तनाव दो इन्सानों या दो राष्ट्र के बीच गतिरोध को बढ़ा देता है जो प्रगति में बाधक है। यदि प्रगति करनी है तो पड़ौसी से रिश्ते अच्छे होने चाहियें और सभी राष्ट्र उन्नति करें इसके लिए पड़ौसी राष्ट्रों से एक घर जैसी मित्रता होनी चाहिए। यह मित्रता नेता नहीं दे पायेंगे क्योंकि वे संख्या में थोड़े हैं और लालच व बुरी नीयत से ग्रसित हो सकते हैं परन्तु जनता जो संख्या में अधिक है दिल बड़ा कर ले तो नेता की एक नहीं चलेगी। विरोधी राष्ट्र के प्रति तनाव व घृणा फैलाकर कोई भी आसानी से चुनाव जीत सकता है। ऐसा करने वालों को सबसे बड़ा लाभ मुद्दों की शिनाख्त व उसके समाधान के लिए वायदों से छूट मिल जाती है जो सत्ता काबिज होने पर पुराने ढर्रे से निजी स्वार्थ सिद्ध में लिप्त हो सकते हैं। ऐसे अवसरों को बचाने के लिए लोहिया ने हिन्दुस्तान-पाकिस्तान {तत्कालीन और अब हिंद, पाकिस्तान व बंग्लादेश} एकता या पुनर्मिलन की बात कही। अपने घर की व्यवस्था खुद करें परन्तु बाहर के लिए ये तीनों घर एक परिवार हों।

नये प्रयोगो को करते हुए लोहिया हद से आगे बढ़ने में भी संकोच नहीं करते थे। राष्ट्रपति का घर बदलकर छोटे घर में तब्दील कर देखें। जातियां आपस में ऐसे गुंथ जायें कि जाति स्वयं टूटकर मनुष्य की पहचान मर्द और औरत तक रह जाये। औरत को ऐसे विशेष अवसर दिये जायें कि वह कार्य विभाजन में मर्द के पीछे न रहे। भाषा पांडित्य की जगह बोल-चाल की हो। खेती में अनुसंधान के अलावा बंजर भूमि को उपजाऊ बनाये जाने के लिए बेरोजगार नौजवानों की सेना बनाने का प्रयोग हो। यदि इस प्रयोग को देख लिया जाये तो दो तिहाई धरती सोना उगलेगी। इससे बेरोजगारी दूर होगी। सूखे और बाढ़ को मिलाने का

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प्रयोग, जिसमें लाखों हाथों को काम मिलेगा और करोड़ों रूपयों की तबाही से छुटकारा मिलेगा।

कुछ जगह नये प्रयोग हुऐ हैं। नारी का मां या शक्ति के रूप से बढ़कर ग्लैमर रूप अधिक प्रचलित हुआ, परन्तु यह ग्लैमर विधान मण्डलों की शोभा तो नहीं बन सकता। पार्लियामेंट या धारा सभाओं की बैठक में सुन्दरता नहीं सार्थकता देखी जानी चाहिए। जहां के सदस्यों में अपनी बातों को कहने, सुनने समझने व सुधारने की क्षमता हो। जहां पौष्टिकता की ठंडाई की चर्चा न होकर, कुपोषण को रोकने की चटनी की बात हो। देश में गंगाजल का बोतल में बन्द कर दूध से महंगा बेचने का प्रयोग तो सफल हो सकता है परन्तु गांव में पीने के शुद्ध पानी की व्यवस्था कराने के प्रयोग का खतरा नहीं उठाया जा सकता। यदि महापुरूषों के भाषणों को सुनने से क्रान्ति आती होती तो धार्मिक किताबों को पढ़कर व उपदेश सुनकर समाज से बुराई-भ्रष्टाचार मिट गया होता। हम सब प्रबुद्ध और आदर्श पुरूष होते। ऐसा नहीं है। हम बदलाव के लिए नये प्रयोग करने से कतरा रहे हैं और स्तुति गान से अपनी छवि मंडित करना चाह रहे हैं। इससे समाज में कुछ नहीं होने वाला। परिवर्तन लाने के लिए लोहिया के तरीके और आचरण को अंगीकृत करना होगा, लीक से हटकर कुछ भी करें यदि भावना समाज के हित की है तो व्यक्ति आज का लोहिया होगा। यही लोहिया का व्यक्तिव था जो काल के साथ फोटो के चौखटों में सिमटा न रहकर वर्तमान में भी उपलब्ध है।

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