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सत्तापक्ष से महत्वपूर्ण है विपक्ष की भूमिका

gopal agarwal
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16वीं लोक सभा के चुनाव में भाजपा ने अच्छा प्रदर्शन किया। कांग्रेस 1952, 1957 व 1962 में इससे अच्छा प्रदर्शन fकर pqdhचुकी है, उस समय भी विरोध नाममात्र था। परन्तु, 1963 में हुए उपचुनाव में डा० राममनोहर लोहिया ने लोक सभा में पहुंच कर विरोध को सत्ता से महत्वपूर्ण बना दिया। तब भी नेता प्रतिपक्ष का रूतवा किसी को हासिल न था। 1967 के आते मजबूत कांग्रेस में विपक्षी हमलों से दरारें पड़ चुकीं थी।
भारत में निष्पक्ष, व्यस्क मताधिकार पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था है जिसमें साधारण बहुमत प्राप्त दल या गठबन्धन को शासन चलाने का अधिकार मिलता है। विश्व में हमारी व्यवस्था का सम्मान है। विश्व के सर्वाधिक वृहद संख्या वाले लोकतान्त्रिक राष्ट्र होने का गौरव हमें प्राप्त है। फिर भी, इस व्यवस्था में अभी सुधार की आवश्यकता है, जिसके लिए समाजशास्त्रीयों को शोध कार्य निरन्तर जारी रखना चाहिए।
16वीं लोकसभा का उदाहरण लेकर गहन विश्लेषण करें तो कुल मतदाता की 15 फीसद संख्या भाजपा के पक्ष में खड़ी नजर आती है। करीब पचास फीसद मतदाता उदासीन हैं vkSjऔर पैंतीस फीसद मतदाताओं ने इसे नापसन्द कर अन्य विकल्प चुने हैं। ये पिचासी फीसद मतदाता इतनी अपेक्षा अवश्य करना चाहेंगे कि संख्या बल में कम ही सही, विपक्षी सदस्यों की कुल संख्या में पहुंचे सांसद उन पिचासी फीसद वोटर की मजबूत आवाज बनें। एक ओर सत्ता पक्ष को अपनी नीतियों के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता हो वहीं दूसरी ओर विपक्षी उन नीतियों से जन सामान्य व राष्ट्र के उपर पडने वाले प्रभावों की व्याख्या करने व सरकार को सावधान करने में न चूकें।
लोकतन्त्र की राह में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यवस्था कांग्रेस ने स्वतन्त्रता से पूर्व अपनायी हुई थी जिसे स्वतन्त्र भारत में क्षीण विरोध के बहाने खारिज कर दिया गया। यह व्यवस्था छाया मन्त्रिमण्डल है। ब्रिटेन में इसे बहुत प्रभावी व ताकतवर बनाया हुआ है। सम्भवत: 1930 के दशक में कांग्रेस ने इसे ब्रिटेन से ही उठाया होगा परन्तु आजादी की घोषणा नजदीक आते देख इस व्यव्स्था को उपेक्षित कर दिया गया। बाद में तीन लोकसभाओं में कोई भी विपक्षी दल कुल लोकसभा सदस्यों की दस फीसद संख्या प्राप्त न कर पाने के कारण, न मान्यता प्राप्त विपक्षी रहा न छाया मन्त्रिमण्डल बन सका।
मैं सुझाव के रूप में दो व्यवस्थाऐं प्रस्तुत करना चाहूंगा जिन्हें साथ-साथ प्रभावी बनाया जाना चाहिए। पहली, सभी विपक्षी पार्टियां मिल कर संघ बना लें और सरकारी नीतियों पर लोक सभा में तथा बाहर उस संघ के सदस्य बैठकें कर बहस करते हुए मत समीपता की ओर बढें, दूसरे, प्रत्येक राजनीतिक दल अपना छाया मन्त्रिमण्डल बनाये और समय-समय पर अपने दल के छाया मन्त्रिमण्डल की बैठकें कर विकल्प प्रस्तुत करें। इस विकल्प में सत्ता पक्ष के निर्णयों की आलोचना के साथ अपनी नीति की प्रस्तुति भी है जिसमें यह बताया जाये कि हम सत्ता में होते तो क्या करते? इससे सिद्धान्तहीन पार्टियों का खोखलापन भी सामने आ जायेगा। जरूरी नहीं कि लोक सभा व राज्य सभा मिलाकर उस दल के पास छाया मंत्रीमण्डल लायक सदस्य हो। मंत्रीमण्डल संगठन से भी बनाया जा सकता है।
अभी हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसमें कुल मतदाताओं की 51 फीसद मतदाताओं की पसन्द की पार्टी देश पर शासन कर। यदि प्रथम व द्वितीय वरीयता के मत-हस्तान्तरण व्यवस्था की ओर जाते हैं तो चुनाव खर्च बहुत बढ़ जायेगा। इस दिशा में पहला कदम मतदाता प्रशिक्षण कार्यक्रम को पांच वर्षों तक निरन्तर जारी रख कर किया जा सकता है। राजनीतिक दल भी अपने साधारण प्राथमिक कार्यकर्ता को प्रशिक्षित कर इसका प्रारम्भ कर सकते हैं। कभी समाजवादियों के यहां प्रशिक्षण शिविर लगा करते थे जिसमें वे विधायिका, नागरिक संहिता, स्थानीय प्रशासन व पत्र लेखन का प्रशिक्षण दिया करते थे। स्वतन्त्रता से पूर्व जेलों में रहकर जिन नेताओं ने जितना अधिक स्वाध्याय किया उतनी उसने वैचारिक परिपक्वता पाई। जेल में रहकर स्वतन्त्रता सैनानी अपने परिवार व कार्यकर्ताओं को खूब पत्र लिखा करते थे जिससे वे लेखन कला में प्रवीण हो गये। पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा जेल से अपनी पुत्री इंदु (बाद में भारत की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी) को लिखे पत्र इतिहास के दस्तावेज बन गये। डा० राममनोहर लोहिया ने इस परम्परा को प्रशिक्षण शिविरों के माध्यम से किया। यही कारण है पुराने युवजन सभाई विचार, भाषण्‍ व लेखन में बेतहर बन सके हैं।
इस समय भर्ती प्रक्रिया व अधिकारियों की स्थानान्तरण नीति में तुरन्त बदलाव की आवश्यकता है। इनका दुरूपयोग सत्ताधारी दलों का अधिकार बन गया है। देश में इनके सुधार के लिए व्यापक बहस चलनी चाहिए। भूगर्भ वस्तुओं का अपने चहेते पूंजीपतियों के लिए लूट की चाहत दूसरा बड़ा दोष है। जांच एजेन्सियों, भर्तीबोर्ड, स्थानान्तरण प्राधिकरण व न्यायपालिका स्वतन्त्र व निष्पक्ष हाथों में रहने से ही प्रदूषण मुक्त शासन की अपेक्षा की जा सकती है। यूं तो न्यायपालिका पहले से ही स्वतन्त्र है परन्तु सेवा निवृत्त होने के बाद राजनीतिक नियुक्तियों के विषय में कोई नीति खोजनी चाहिए।
इन सभी कार्यों में विपक्षी दलों, समाजशास्त्रीयों विधि-विशेषज्ञों, पत्रकारों व शोधकर्ताओं को मिल कर चर्चा करनी होगी। सेवा निवृत्त होने के बाद अधिकारियों को इन विषय पर शोध कार्य के लिए विशेष सुविधा तथा शोधोपरान्त उपाधि प्रदान की जा सकती है। वर्तमान लोकतन्त्र प्रणाली कोई अन्तिम व्यवस्था नहीं है। बेहतरी की तरफ चलने के लिए प्रत्येक विषय पर ताने-बाने के रेशों को निकाल कर परीक्षण करना होगा। सबसे बेहतर पाने के लिए सागर की तह तक जाना होगा। विपक्षी दल गुणदोष को जांचे वगैर केवल आलोचना के लिए आलोचना करते रहे तो उन्हें पांच वर्ष हाथ पर हाथ्र रख कर इन्तजार करना होगा, जो राजनीतिक दल के आचरण के विरूद्ध है। किसी भी नीति की आलोचना के साथ वैकल्पिक नीति प्रस्तुत करने वाला दल ही जनता में विश्वास बना पायेगा। सबसे अच्छी बात यह है कि ये सभी कार्यक्रम संसद में कम संख्या वाले दल भी चला कर सत्ता पक्ष से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका में आ सकते है।
निजी विधेयक दल की योग्यता मापने का शून्य त्रुटि रहित मापक यंत्र है। निजी विधेयक संख्या बल की कमी के कारण पास तो नहीं होगा परन्तु प्रस्तुति अच्छी हुई तो देशवासियों को दल के वैचारिक स्तर का लोहा मनवा देगा। इस क्षेत्र में बडा शून्य है। विज्ञान भी यही कहता है कि वायुमण्डल में कम दबाव के खाली क्षेत्रों को भरने के लिए आस-पास की वायु वेग के साथ बढती है। इसी को आंधी कहते हैं। जनमानस के मुददों को लेकर कोई गम्भीर नहीं है। जिसने इसके खालीपन को समझ लिया और आंधी बन कर मुददों पर छा गया, भविष्य भी उसी का लिखा जायेगा। जब समूचा देश मुददों की बहस में लग जाये तो साम्प्रदायिकता के लिए समय नहीं बचेगा, तब लोक सभा में बैठे विरोधी हार कर भी विजेता माने जायेंगे।

गोपाल अग्रवाल

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