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दंगों का राजनीतिक समाधान

gopal agarwal
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मेरठ में एक बार फिर नफरत की चिंगारी भड़की। यह बात दीगर है कि राज्य सरकार के कठोर निर्देशों के चलते आग फैलने न पायी। परन्तु, ऐसे प्रयास स्वयं में प्रशासन को चुनौती हैं। हम यह मान कर चलें कि षडयन्त्रकारियों के कृत्य बन्द हो जायेंगें तो यह भूल होगी। दंxsaगें कराकर कुछ लोग सांप्रदायिकता में राजनीतिक लाभ देख रहे हैं, परन्तु प्रशासन व पुलिस को उससे अधिक आवेग से हिंसा रोकने के लिए तत्पर रहना होगा। गुप्तचर विभाग को मुस्तैद करना होगा।
यदि चिंगारी छूटने वाले स्थान पर सूखी घास-फूस रखी गयी है तो नीयत आग लगाने की ही है। किन्ही दो पक्षों के आमने-सामने आते ही ईंट-पत्थर की वर्षा का अर्थ है कि इन वस्तुओं को इस प्रयोजनार्थ जमा किया गया है। स्थानीय प्रशासन की गुप्त संस्थाओं को इसकी भनक नहीं लगी तो यह चूक है जिसे वरिष्ठ अधिकारियों को कठोरता से संज्ञान में लेते हुए दंडात्मक कार्यवाही करनी चाहिए। पलक झपकते ही तंमचों से निकली गोलियां बता रहीं हैं कि तैयारी पहले से ही थी, बस किसी खास अवसर की प्रतीक्षा थी। राजनीतिक दल व सामजशास्त्रीयों को इन बातों के परिणामों का आंकलन दल के हिसाब से न कर दिमाग से करना चाहिए। सामप्रदायिकता को राजनीति का औजार बनाने वालों के लिए यह तत्कालिक लाभ भले ही हो परन्तु जिस वर्ग के नाम से वह राजनीति के अखाडे में है उससे जुडे सामान्य कार्यकर्त्ताओं के लिए यह बहुत घाटे का सौदा है। बच्चों की पढाई से लेकर रोज कमाने वाले एवं व्यापारी वर्ग के लिए दंगा अभिशाप है। हिंसा कराने वाले साम्प्रदायिकता के आधार पर वोट मांगकर सत्ता तक पहुंच भी जायें तो यह सत्ता विनाशकारी हो जायेगी। हिटलर से बड़ी साम्प्रदायिक राजनीति कौन कर सकता है परन्तु इसका अन्त उसके सर्वनाश के साथ हुआ।
उत्तेजना से लबालब तेज आवाज में लोगों को दूसरे वर्ग के विरूद्ध अनर्गल कहते हुए सुना गया है। उनसे जब तसल्ली में उस भाषा का अर्थ इस प्रकार पूछा जाता है कि आपकी महलनुमा बिल्डिंग जिस कारोबार से आयी है उसके अर्जन में एक भाग आपका और दूसरा भाग दूसरे वर्ग का है। दोनों की प्रक्रियाओं को जोडे वगैर बिक्री योग्य तैयार माल बन ही नही सकता। इसको समझते हुए वे इसे टालते है।
फुटबाल में एक वर्ग सिलाई कर रहा है तो दूसरा रंग भर रहा है। एक कपड़ा बुन रहा है तो दूसरा रंगरेजी कर रहा है। उसके बाद ही यह वस्तुऐं विपणन के लिए आती हैं। विपणन करने वाले सोचें कि वस्तुऐं नहीं आयेंगी तो बेचेंगे क्या? अत: इन्हें दो सांप्रदाय कहना गलत है ये सभी मानव जाति के हैं। इनके हाथ अलग-अलग कार्य कर रहे हैं।
अंग्रेजों ने जब बीज बोया था, तब से अब तक सांप्रदायिक भावना का अल्पकालीन राजनीति के अतिरिक्त और कोई प्रयोजन नजर नहीं आया। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि अल्पकालीन राजनीति से न दल का भला हुआ न राष्ट्र का। अन्तत: हानि भागीदारी कर रहे कार्यकर्ताओं को ही उठानी पड़ी क्योंकि नेता वख्तरबन्दों में सुरक्षित होकर राजनीति करते हैं और कार्यकर्ता खुली सड़क पर उसका परिणाम भुगत रहा होता है।
यह माना जाये कि षडयन्त्रकारी टेढ़ी दुम की तरह है तो प्रशासन को बचाव में आग पर सदभावना रूपी पानी की बाल्टी को घर-घर रखने की प्रेरणा देनी होगी। हिंसा का हिंसा पर पलटवार अथवा हिंसा का अहिंसक पर वार हो, दोनों ही परिस्थितियां घातक होती हैं। अत: हिंसा की तैयारी न होने देने का जिम्मा प्रशासन व पुलिस को दिया जाय और राजनीति को पूरी तरह से मुददों से जोड़ दिया जाय। बाजार में हो रही स्वस्थ्य प्रतियोगिता में एक कंपनी दूसरे की कमीज फाड़ती नहीं वरन् उससे अधिक चमक वाली सिद्ध करने का भरोसा दिलाती हैं। राजनीति हम जीवन को वेहतर बनाने के लिए करते हैं। एक पानी उपलब्ध कराने की बात करे तो दूसरा खाली उपलब्धता ही नहीं, साफ और निर्मल पानी उपलब्ध कराने का भरोसा दिलाए और जिम्मेदारी मिलने पर वादा पूरा भी करे तभी राजनीति प्रगतिशील व जीवन के साक्षेप बनेगी। यदि राजनीतिक दल पानी उपलब्ध कराने का वादा कर इस पर कार्य नहीं करेगा तो जनता उसे भविष्य में नकार देगी। इसलिए, राजनीति को अधिक से अधिक मुददों की तरफ मोड़ा जाना चाहिए, नहीं तो देख रहे हैं, पढाई की दुकानें खुल रहीं हैं, स्वास्थ्य व्यवसाय हो गया है और कानून विकाऊ हो गया है।
प्रशासन कस्टोडियन है मैनेजर नहीं, उसके पास दो मास्टर रोल होने चाहिए, अमन पसन्द अग्रणी व्यक्तियों की सूची व हिंसा पसन्द अग्रणी व्यक्तियों की सूची। अमन पसन्द को प्रोहोत्साहित किया जायेगा और हिंसा पसन्द को सुधारवादी कार्यक्रमों के तहत लाया जायेगा। इन दोनों से पृथक दलाल जैसा कोई शब्द प्रशासनिक भाषा में प्रयोग नहीं होगा।
लम्बे समय से सुनते आ रहे हैं कि भला आदमी थाने जाने से डरता है। थानों में दलालों का जमघट, लोकोपयोगी सुविधा देने वाला सरकारी सुविधाओं के दफतरों में बिचोलिए सरकारी बाबू की सीट पर व्यवस्था को संभाले हुए मिलेंगें, तो भला, भले आदमी जिनकी संख्या आबादी का 98 फीसद होती है किस तरह राहत पायेगी? ऐेसे माहौल में सत्ता परिवर्तन के बाद भी राजनीति बदला नहीं करती क्योंकि आबादी के ये न बदलने वाले २ फीसद लोग सत्ता दल के हिसाब से खुद को दल बदल कर लेते हैं। सत्ता किसी की भी आये ठेकेदार कमोवेश वही लोग रहते है। केवल संरक्षक बदल जाते हैं।
भीष्म ने धर्म नैतिकता का उपदेश दिया परन्तु स्वयं चूक गये। भरी सभा में नारी अपमान पर मूक दर्शन बने। युधिष्ठर धर्मराज होते हुए भी चौपड़ खेल गये। भूलों का दोहराया जाना ही कदाचित सत्ता का आनन्द है अथवा अहंकार, परन्तु इन भूलों से नित्य हो रहे महाभारत में जनता ठगी सी दीखती है। जो पेशेवर नेता हैं अर्थात रोजगार भी इसी से है, बहुधा सरकारी कार्यालयों में अधिकारियों से मिलने वाले समय में भी नवरत्नों की तरह अधिकारी के सिंहासन के सम्मुख होते हैं। ऐसे लोगों का कार्य चापलूसी के साथ-साथ आने जाने वाले व्यक्तियों के चरित्र का नकारात्मक विवरण अधिकारी को सुनाने का रहता है।
जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति तथा बेहतर जीवन के लिए विकासशील योजनाऐं ही सांप्रदायिकता को करारा उत्तर है अन्यथा राजनीति दीर्घकालीन तपस्या की जगह अल्पकालीन धर्म बन कर सत्ता की देहली पर लँगडी टाँग खेलती रहेगी।

गोपाल अग्रवाल

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