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कांग्रेस राज में गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा जितनी खराब है और लगातार खराब हो रही है उससे समाज में बेचैनी है। यह अत्यन्त दुर्भाग्यशाली है। यह आखिर दुर्भाग्यशाली क्यों है? गरीबों की बढ़ती संख्या को पूर्व जन्म के पापों का नाम लेकर उसे और ज्यादा कुंठित न करो। गरीबों के दुर्भाग्य का पाप एक प्रतिशत आबादी के मन में छिपा है जिसके पास शासन की लगाम है। असली शासक तो देश की दौलत पर काबिज़ कुछ परिवार हैं। कांग्रेस के दिखाई दे रहे नेता तो छलावा है जो कपड़े, लत्ते व भाषा से बड़ी कंपनियों के सी० ई० ओ० लगते हैं।
क्या तमाशा है। वैश्वीकरण के नाम पर सम्पत्ति का मुक्तिकरण। “गरीबी पर बहस करना फैशन बन गया है”। यह तो गरीबी का नाम भी जुबान पर न लाते यदि गरीबों के पास वोट न होते। भारत की 75 प्रतिशत आबादी गरीब किसान, मजदूर हैं। 14 प्रतिशत व्यापारी इनसे ऊपर के खाते-पीते व्यापारी हैं। इन नवासी प्रतिशत आबादी पर राज एक प्रतिशत की आबादी के नुमांइदे कर रहे हैं। बड़े सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, बड़े घरानों में ठाट-बाट की नौकरी करने वाले और कुछ अपने को मुकद्दर से धनी मानने वालों की सोच उदासीनता भरी है। परन्तु यह अवसरों की ताक में रहने वाले है, जिनके लिए पाप-पुण्य के रास्ते से कोई लेना-देना नहीं है।
यदि ये नवासी प्रतिशत गरीबों की सोच राजनीतिक हो जाए, वे अपनी सभा बनाकर चिन्तन व चर्चा कर लें तो 110 करोड़ लोगों की तकदीर बदलते देर नहीं लगेगी। इन्हें खाने की, पीने की, पढ़ने की, इलाज की तथा रहने की सुरक्षा चाहिए। खाली खाद्य सुरक्षा के सेफ्टी बल्ब से अन्य जरूरतों की भाप कों हवा में न उड़ायें।
कमाल की राजनीति है हिन्दुस्तान की, हम बात कर रहे हैं राशन की, पानी की, इलाज और रहने की, वो भेड़ियों की खाल लेकर डराने आ जाते हैं। मुद्दों की बात तो होती ही नहीं है। भूखा रखकर टुकड़े डालने को उपकार का नाम देते हैं। यह संघर्ष जो पांच वर्षों में बन कर आता है चुनावी वर्ष में सांप्रदायिक रंग में रंगा जाता है। उनके सुर केवल दो वाद्य यंत्रों के काम आते हैं अर्थात् उनकी थैली देश के दो राजनीतिक दलों के लिए खुल जाती है। इसी से सोशल मीडिया प्रबंधन होता है। हाइप बनती है, नेता की स्टाइल बनती है। फिर नूरा कुश्ती में कोई जीते सरकार थैली शाह की होती है। वहीं वैश्वीकरण, उदारीकरण का विदेशी पूंजीकरण और जनता के लिए बच जाता है गलियों में चीरहरण।
अवसरों पर असमानता कितनी भयानक है। परचून वाला पचास हजार के कर्ज के लिए चप्पल घिस लेता है परन्तु सिक्की फिक्की के रोबीले चेहरे वाले अधिकारियों के पास ऋण पत्र लेकर जूते चटकाते स्वयं कुबेर बन्धु पहुंचते हैं। जिसे दस हजार का कर्ज देने को मना कर दिया उसे दस लाख की कार खरीदने को बिना मार्जिन मनी कर्ज मिल जाता है। जानते हो क्यों? क्योंकि सरकार को कार बनवानी है, बनेगी तो बिकवानी है, कार बनाने के लिए किसान की जमीन लेकर फैक्टी को देगी, उस जमीन पर मशीने लगाने के लिए ऋण मिलेगा। बनी कार पर सब्सीडी भी मिल सकती है और कतारबद्ध खड़ी कारों को बिकवाने के लिए बैंको से एडवान्स कराया जायेगा। खेती घट रही है। जी० डी० पी० की काल्पनिक बढ़ोत्तरी के लिए कार बिकवाना जरूरी है। इससे फैक्टी मालिक को लाभ होगा। यह पूँजी पुन: चक्र में चुनावों में भ्रष्टता फैलाने के काम भी आयेगी। असली उत्पादन तो खेती का है क्योंकि वह सीधा पेट में जाता है। जिस राष्टª में cgबहुमंजिली इमारतों व चमकीली सड़कों का जाल बिछाया है, उसी राष्टª में भूख से इन्सान मरा तो समझो हमने तरक्की नहीं की, जलालत झैली है। यदि हमने भूख पर विजय पा ली तो हम कामयाब देश के वासिंदे हैं। देश में भूख से मरने के आंकड़े ढ़ाई लाख से पांच लाख तक बताए जाते हैं इस पर नवासी प्रतिशत वालों को सोचना होगा।
मुझे चिन्ता उन लोगों की तरफ से अधिक है जो चरित्र चाल में अपने को पृथक बताते हैं। ये फैशन की बात करते हैं। तीज त्यौहार पर परम्परागत वेश-भूषा में टी०वी० पर दिखते हैं जिससे जनता उनमें अपनी तस्वीर देखें। यह आन्दोलन की रूकावट है। इस रूकावट को हटाना आसान नहीं हैं। मुद्दों की गठरी बनकर किनारे पटकने का चलन यहीं से शुरू हुआ था।
यह बात दावे से कही जा सकती है कि विधायिका में अपराधी प्रवृत्ति के व्यक्तियों की संख्या बढ़ी तो इन्हीं रूकावटों की वजह से बढ़ी। रूकी सड़क पर चतुर सयाने पगडंडियों का वैकल्पिक मार्ग तलाश लेते हैं। राजनीति की सड़क पर रातों-रात ऐसे शार्टकट अपराधी नेता अधिकारी के गठजोड़ से ही बनते हैं। यदि रास्ता जाम न करो तो शरीफों को मार्ग मिल जायेगा। ध्यान रखो बाहुबलि बन्दूक दिखाकर नहीं जीतता। अधिकांश बाहुबलि, जाति व धर्म के समीकरण के बीच ही चुनाव जीते हैं। कुछ वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश में खाते-पीते मध्यम वर्ग के लोग तानाशाही के तांडव से इतना डर गये कि तत्कालीन सत्ताधारी दल से पृथक किसी पंचायत में जाते तक न थे। ये र्निलिप्त नहीं थे फिर भी अपने को किसी राजनीतिक गतिविधियों में लिप्त नहीं रखना चाहते थे। ऐसी दशा में सरकारी मशीनरी भयानक होकर भय दिखाती है। व्यवस्था की गिरावट का यह निम्नतम बिन्दु है। परन्तु इसमें मुख्य दोषी मशीनरी नहीं स्वयं मध्यमवर्गीय डरपोक हैं। डरपोक बने रहने को वे इज्जत बचाना बोलते हैं। यदि मोहनदास करमचन्द गांधी इज्जत-बेइज्जत की दुविधा में पड़ जाते तो वे महात्मा गांधी नहीं बन पाते। झूठे आंडवर व संकुचित सोच ने देश की आठ प्रतिशत उच्च मध्यमवर्गीय आबादी को सार्वजनिक मुद्दों पर चिन्तन से रोक दिया है। वे फिल्मों की बनावट, सट्टे की रोशनी से चमचमाते खेल व बड़े घरानों के चोचलों की नकल में अपनी जिन्दगी को उलझाये हुए है। ऐसे में देश को बदलने का सारा भार किसान-मजदूर व व्यापारी पर आ गया है। अब किसी गांधी-लोहिया के पैदा होने का इन्तजार मत करो।
गोपाल अग्रवाल
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