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आग अगर बर्तन के नीचे है तो खाना पक जायेगा।यदि आग बर्तन के ऊपर आ गयी तो खाना व हाथ दोनों जलेंगे। जाति का खेल भी ऐसा ही है। पिछMMडी जातियों को आगे ब`ढ़ाओगे तो समाज तरक्की करेगा। यदि राजनीति में जातियाँ डाल दी तो समाज बंट जायेगा। कमोवेश यदि स्थिति धर्म की है। राजनीति को धर्म मानकर ईमानदारी से करोगे तो सही रास्ता मिलेगा परन्तु धर्म के नाम से शार्टकट मार कर राजनीति करोगे तो विकास ठप्प हो जायेगा।
इसे और खुलकर समझने के लिए उदाहरण के साथ लें। जाति “अ” की पंचायत में तय हुआ कि अपनी जाति में से बौद्धिक, तार्किक, श्रेष्ठ आचरण का अनुसरण करने वाले पांच व्यक्तियों को सहयोग कर राजनीति के क्षेत्र में भेजेंगे। यही निर्णय जाति ब, स आदि सभी जातियों ने लिया।
इस प्रकार सभी उम्मीदर बौद्धिक चिन्तनशील व्यक्ति होंगे तथा राष्ट्र की प्रगति के पक्षधर होंगे। विभिन्न दलों से आए, चुने गये व्यक्ति चाहे वे किसी भी जाति के हों बौद्धिक व राष्ट्र की उन्नति के पक्षधर ही होंगे।
इसके विपरीत तय हुआ कि खड़े उम्मीदवारों से जाति के अनुसार अपनी-अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना है। एक जाति के वोट से कोई जीतना नहीं। अत: कुछ अतिरिक्त वोटों की जुगाड़ के लिए तरकीबें अपनानी होगीं। यहीं से राजनीति भ्रष्ट हो गयी। ऐसे चुनाव के उम्मीदवार जाति में से श्रेष्ठ बौद्धिक व राजधर्म को समझाने वाला नहीं होगा अत: चुनाव जीतने के लिए तिकड़म की जाएगी।
पहले दृश्य में जातियों का राजनीतिकरण हो रहा है अर्थात उत्तम सोच-समझ के व्यक्ति तैयार हो रहे हैं। दूसरे दृश्य में राजनीति का जातीयकरण हो रहा है अर्थात चुनाव नीति पर न होकर ऐन-केन समर्थन हासिल करने पर निर्भर है।
एक-समय डा० राममनोहर लोहिया ने जातियों पर कड़ा प्रहार किया। ऐसा लगा कि जातियाँ ऐसे फैंट दी जायेंगी कि मिश्रित घोल में जाति का आस्तित्व लुप्त हो जायेगा। उस समय जातियों के मिट जाने से सबसे बड़ा खतरा कांग्रेस को था। कांग्रेस बिना सिद्धान्तों के चलने वाली पार्टी रही है। उनकी कोई निश्चित आर्थिक दिशा नहीं है। उन्होंने देश के लिए समतल अर्थव्यवस्था की नई चादर बुनने की जाय पैबन्द की नीति अपनाई। जिसने मुंह खोला उसके चेहरे के सामने वाले टुकडे पर सनील का पैबन्द लगा दिया। चुनाव जीतने की रणनीति जाति आधारित ही थी। दुर्भाग्य से डा० लोहिया का असमय निधन हो गया। यदि वे fजातियों dks ughको नहीं फैंट पाते तो कोई न कोई विकल्प अवश्य देते परन्तु अभियान रूक गया। अधपके फोड़े का मवाद निकलने पर सूजन बढ़ जाती है। बाद में संक्रमण क्षेत्र भी बढ जाता है। ऐसा ही जातियों के साथ हुआ, फैंटन की प्रक्रिया के बीच ही मथनी को घुमाने वाले हाथ रूक गये। डा० लोहया नहीं रहे। हडिया में खमीर उठ गया। हाल पहले से ज्यादा खराब हो गया।
जातियों का दबदबा बढ़ा तो दबदबे ने दबंग पैदा किए। दबंगी ने अकूत सम्पत्ति का मालिक बना दिया। एक तरफा आरी से काम नहीं चला तो जाति व सांप्रदायिकता की दुधारी आरी चली और हम वहां पहुंच गये जहां आज खड़े है।
हम डाक्टर की जाति नहीं देखते। वह अपनी डाक्टरी का माहिर है तो वहां सभी जाति धर्म के मरीजों की लाईन लगी होगी। ऐसा ही वकील व अन्य कारोबारियों के साथ है। खिलाड़ी के प्रशंसक जाति नहीं देखते परन्तु चुनावों में इस सिद्धान्त को भूल जाते हैं। उम्मीदवार की राजनीतिक समझ का हमें ख्याल नहीं रहता इसलिए डाक्टर, वकील, खिलाडी की जाति टूटी है परन्तु राजनीति में जाति का अंधा खेल चल रहा है।
इसके बाद लोग शिकायत कर रहे है कि 540 में से 248 अपराधिक प्रवृत्ति के हैं। परन्तु उन्हें चुनने वाले अपराधिक प्रवृत्ति के भले न हो, परन्तु वे जातिवादी हो सकते है। बहुत खुशी की बात है कि न्यायालय से निर्णया आया कि अपराधी चुनाव नहीं लड़ पायेंगे। इससे सिद्धान्त रूप से साफ सुधरा रास्ता खुलेगा, परन्तु यहां तो कदम-कदम पर साजिशों की मार है। किसी क्षेत्र के शरीफ लोकप्रिय उम्मीदवार को रास्ते से हटाने के लिए यौन शोषण की एक झूठी प्रथम सूचना रिपोर्ट काफी है। जब तक वह न्यायालय में बरी होगा तब तक क्षेत्र में आगामी चुनाव आ चुका होगा।
कुल मिलाकर मतदाता को शिक्षित करना ही एक मात्र रास्ता है। परन्तु, निरक्षर व परिवार के मुखिया के दबाव में रहने वाली आधी आबादी क्या अपनी मर्जी से वोट डाल पायेगी? कब देश के चुनाव उन्मादी नारों से मुक्त होकर अर्थव्यवस्था की बहस पर निर्धारित होंगे?
इसके लिए एक रास्ता छाया मंत्रीमंडल है/सत्ता पक्ष की नीति गलत है तो विकल्प क्या होना चाहिए? इस पर सभी दल नीति स्पष्ट करेंगे। विरोधी दल तथा उनकी बातें रिकार्ड होंगी तथा सत्ता आने पर यदि वैसा आचरण नहीं कर पाती तो महाभियोग की दोषी होगीं।
आजादी के पूर्व कांग्रेस में यह व्यवस्था थी, परन्तु स्वतन्त्र भारत में सत्ता बेलगाम हो चली। डा० लोहिया और उनकी पार्टी अपवाद रहे जिन्होंने विरोध में वैकल्पिक व्यवस्था भी बताई अन्यथा अन्य तो केवल दहाडे मारकर स्यापा ही कर रहे थे क्योंकि उन्हें विश्वास था कि यदि कभी सत्ता में आ गये तो कांग्रेस नीति पर ही राज करने में उनकी, उनके परिवार की तथा उनकी पार्टी की भलाई है।
गरीबी पर नियन्त्रण में विफल कांग्रेस ने जब पुन: सत्ता पाने के लिए क्षेत्र व जाति के उम्मीदवार को आधार बनाया तो विरोधी दलों ने भी इसे सत्ता पाने का शॉर्ट कट उपाय समझ लिया। इस तरह सत्ता की घमासान से जाति में घमासान शुरू हो गया।
ध्यान हो कि इस घमासान की जगह हम जातियों की पारम्परिक कलाओं को समझें। उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान का मुख्य धारा में ले आयें। नाव रखने वाले को अब नदी पार करने वाले मुसाफिर तो मिलते नहीं, नाव छोडेगा तो कहीं मजदूरी ही करेगा, उसे सहयता की जरूरत है। उस मजदूर के बच्चे पढाई में कारपोरेट घरानों द्वारा संचालित स्कूल में पढने वाले बच्चों से कैसे मुकाबला कर पायेंगे? अत: उसका घर तो सदैव अभिशाप से ग्रसित ही रहेगा। यह शासन का संवैधानिक कर्तव्य है कि दौड में सभी बच्चों को बराबर लाईन पर लाकर खड़ा करे। इसका यह अर्थ कतई नहीं कि अगड़ों को धकेल कर पीछे करेंगे वरन पिछडों को आगे बढाकर अगडों को प्रतिस्पर्धा के लिए मैदान तैयार करना होगा।
आज जाति तोडों नारा सार्थक नहीं है। तोडना है तो जातियों का आपस में बैनमस्य ंदतोडना होगा, सौहाद्रता कायम करनी होगी। जब घुटना चलते बच्चें को उंगली पकड कर चलना सिखाते है वह तभी चल पाता है। यदि उंगली पकडकर नहीं उठाया तो वह जीवन भर चौपाया ही रह जायेगा।
यदि जातियों की लडाई समाप्त करनी है तो हमें प्रत्येक जाति की संख्या व आर्थिक स्तर व उनके कार्य की प्रकृति जाननी होगी। तभी हम सभी के लिए पृथक-पृथक योजना बनाकर बराबरी पर ला पायेंगे। समूचे राष्ट्र में यह कार्य ईमानदारी से चले तो अगले एक दशक में हम भारत की जातियों को आपसी सहनशीलता के स्तर पर ले आयेगे। सहनशीलता का अर्थ वह स्थिति है जब एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति के व्यक्ति को हेय घृणा व बदले की भावना से न देखे। इसी से डा० लोहिया का जाति तोड़ो की परिकल्पना का सपना पूरा हो जायेगा। जाति भले ही चले परन्तु जातियों के भेद की दीवार टूट चुकी होगी। इतना तो सच है कि श्री मुलायम सिंह के नेतृत्व में सभी धर्मों की अगडी, पिछडी, अति पिछडी तथा दलित कहलाने वाली जातियां एक साथ आकर खडी हो गयी है।
गोपाल अग्रवाल
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