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आपदा प्रबन्धन

gopal agarwal
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आज 23 जून है। इस दिन को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जन सेवा दिवस मनाने का चलन है। जनसेवा का क्षेत्र वृहद है। निजी तौर पर या संगठनात्मक तौर पर यह विभिन्न तरीकों से मनाया जा सकता है। जिस तरह मातृ या पितृ दिवस द्वारा वर्ष में एक बार माता-पिता को याद कर लेने से उद्देश्य पूर्ति नहीं होती, (यहक नित्य प्रात: काल स्मरण तथा दिनभर सेवा की भावना होती है), उसी प्रकार जन सेवा दिवस हमें समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध कराता है। नेता एवं अधिकारी तो जन सेवा dks को संकल्प के साथ ही अपने अभियान व कैरियर का हिस्सा बनाते हैं।
यह तो भाषण, संवाद या लेखन की भूमिका की आदर्शवादिता है। वास्तविक जीवन में हम अपने उत्तरदायित्व के प्रति कितने गम्भीर है यह हमारी कार्य शैली निर्धारित करती है।
मैं जनसेवा को आपदा प्रबन्धन से जोड़कर भी देख रहा हूँ। पहाड़ो पर हुई तबाही कुदरती है या इंसानी छेड़छाड़ का नतीजा, परन्तु हिमालय की वादियों में तूफान तो आया ही था। संकट के इस समय आलोचना या समालोचना से उत्तम जन सेवा धर्म का प्रवर्तन है। व्यवस्था से जुड़ा होने के कारण यह राजनीति का एक भाग है। मैं स्पष्ट कर दूं कि राजनीति को लोग कपट, चाल या पैतरे बाजी समझ कर अज्ञानता के रसाताल में जा रहे हैं। राजनीति का सम्बन्ध उन नीतियों से है जो ‘राज’ के लिए आवश्यक है। इन नीतियों में भेद ही विभिन्न राजनीतिक दलों का गठन कराता है। यह एक स्वस्थ्य परम्परा है। स्वन्त्रता से पूर्व कांग्रेस पार्टी ‘सेवा दल’ की भूमिका में रही। जब-जब आपदा आती कार्यकर्ता आपदा प्रबन्ध में लग जाते। महामारी, हैजा, प्लेग में बापू तक की परमार्थ सेवा में एक कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के उदाहरण हैं। गांधी आपदा प्रबन्ध के वैज्ञानिक ज्ञाता थे। वे कांग्रेस संगठन की सुदृढ़ता के साथ विदेशी शासन से लड़ने के के लिए आम जनता के बीच भाषण देते थे तो उसी संगठन को जनता के सहयोग से चेचक, हैजा, प्लेग से पीडितों के बीच बचाव कार्य तथा कार्यकर्ता को स्वयं बचने का मंत्र देते थे। गांधी ने ही वह मंत्र दिया कि रोग की विभत्सता के प्रति मन में घृणा न हो तो शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति संक्रमण से बचाने के लिए बनी रहती है। इसी सिद्धान्त से वह गुत्थी सुलझी कि बहुधा शिशु के संक्रमण का प्रभाव माता पर नहीं पड़ता है। परन्तु, बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर कहर बन कर टूटे पानी ने केन्द्र व उत्तराखण्ड सjdkjरकार के आपदा प्रबन्ध पर ऐसा सवालिया निशान लगाया जिसका जबाव आपदा प्रबन्ध प्राधिकारण के अधिकारियों के पास नहीं है।
एक सेठ ने उधार वसूली के लिए गठीले बदन वाले पहलवान को पगार पर रख लिया। सेठ का कार्य ठीक चल रहा था। पहलवान को भी बादाम खाने को मिल रहे थे। रोज कसरत कर वह मस्त पड़ा था। एक दिन सेठ ने पहलवान को बुलाकर कर कहा कि आज तुम्हारे लिए काम आ गया है। एक उधारी पैसे नहीं दे रहा है ‘जाओ वसूल लाओ’। पहलवान ने जेब से कागज निकाल कर सेठ के सामने रख दिया, बोला कि सेठजी यह मेरी छुट्टी की दरखास्त है एक साल से बीबी बच्चों को नहीं देखा, हाल चाल लेने जाना है।
भारत सरकार की आपदा प्रबन्ध व्यवस्था में भी कहीं ऐसा ही खोट है। बदरीनाथ-केदारनाथ जाने वाले श्रद्धालु सामान्य यात्री आचरण के अन्तर्गत यात्रा कर रहे थे। सम्पूर्ण मार्ग पर किस वक्त में कितने यात्री मार्ग में कहां-कहां है, इसका पूरा ब्योरा स्थानीय प्रशासनिक एजेन्सीयों पर रहता है या रहना चाहिए। ये यात्री कोई पर्वतारोही जैसी जोखिम यात्रा पर नहीं थे। अत: सम्पूर्ण व्यवस्थायें एक निर्वाचित सरकार के अन्तर्गत स्थानीय प्रशासन देख रहा है जिसकी खबर गृह मंत्रालय व आपदा प्रबन्ध मंत्रालय को रहती है। प्रत्येक स्थान व मार्ग की अधिकतम भार क्षमता जिसकी यात्रियों व वाहनों की संख्या के आधार पर गणना की जाती है तथा जो होटल-धर्मशालाओं के ठहरने व भीड़ नियन्त्रण क्षमताओं के समानुपाती होती है। इन व्यवस्थाओं के आधार पर नियन्त्रण कक्ष से यात्रियों का मूवमेन्ट निर्धारित किया जाता है। इसी कक्ष में रेखा चित्रों व मानचित्रों के साथ आपदा आने पर बचाव केन्द्र व आपात यात्रियों के ‘लिप्टिंग’ क्षेत्र चिन्हित रहते हैं। राज्य व केन्द्र सरकार व उसके निर्देश पर सेना को विपत्ति की सम्भावना के लिए चौकन्ना रखा जाता है। हो सकता है यह सारी कसरत की गयी हो किन्तु फंसे हुए यात्री, विपत्ति के समय हुई लूट-मार को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सेना की भूमिका को छोड़ दें जिसके कारण राहत कार्य हो भी पा रहा है अन्यथा व्यवस्था बहुत कमजोर रही। इसमें दोनों सरकारें अपनी राजनीतिक प्रतिवद्धता के प्रति विफल रहीं।
2012 का इलाहाबाद कुम्भ मेला उदाहरण है। सदी के सर्वाधिक भीड़ संख्या व दशक के सबसे बडे़ मेले में सब कुछ सामान्य व सही सलामत आयोजन पर उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार की प्रबन्ध उत्कृष्टता की पूरे विश्व में प्रशंसा हुई। स्थानीय अधिकारी, नगर विकास मंत्रालय व उत्तर प्रदेश सरकार के समूचे सरकारी तंत्र में यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि सरकार अपनी राजनीतिक क्षमताओं से भरपूर है। यदि रेलवे के अधिकारी प्लेट फार्म बदलने जैसे घातक निर्णय लेने की गलती न करते तो यह मेला ‘जीरो एरर’ के साथ सम्पन्न था।
केन्द्र सरकार अब भी सबक ले। राजनीतिक व्यवस्थायें नीतियों से चलती हैं। यदि मंत्री कॉपरेट घराने के मुख्य कार्य पालक की भाषा, भेष, चाल व चलन से चलेंगे तो देश की जनता को सुदृढ़ व्यवस्था नहीं दे पायेंगे।

गोपाल अग्रवाल

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