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अव्यवस्थित अर्थ

gopal agarwal
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बीते माह अगस्त में घरेलू कार बिक्री में 10.08 फीसद की गिरावट आई है। सोसायटी ऑफ इण्डियन ओटोमोबाइल मैन्यू के अनुसार अगस्त में 144516 कार बिकी जबकि विगत वर्ष इसी महीने में 160713 कार बिकी थी। इससे देश के सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत में भी गिरावट आयेगी।
दरअसल वर्तमान यू०पी०ए० सरकार ने कृत्रिम तरीकों से जी०डी०पी० बढ़ाकर अपनी पीठ ठोकी जिसके लिए वे ओटोमोबाइल, हवाई यात्रा व वित्तीय सेवा संस्थाओं पर निर्भर रहे। उनकी इस गलती या चालाकी का खामियाजा देश को भरना पड़ रहा है। कार बेचने के मामले में तो सरकार बेशर्मी पर उतरी हुई है। सरकार कार फैक्ट्री के लिए जमीन, मशीन के लिए ऋण व तरल पूंजी की व्यवस्था तो कराती ही है साथ ही स्टाक डम्प न हो सो कार बिक्री के लिए बैंको को खुले दिल से ऋण उपलब्घ कराने के निर्देश भी दिए। कुछ बैंको ने अति उत्साह में मार्जिन मनी की मांग को भी स्थगित करते हुए पूरी रकम को फाइनेन्स करने की योजनाऐं जारी कर दी हैं।
सरकार की भारी भूल है कि ठोस ग्रामीण कृषि आधारित अर्थव्यव्स्था से मुँह मोड़ कर अल्पकालीन तीव्रता प्राप्त करने के लिए खोखली व्यवस्थाओं की ओर झुकी। कार सुविधा है जरूरत नहीं। कार की बिक्री को सार्वजनिक पूंजी की नाव पर चढ़ा कर घाटे की वैतरणी पार नहीं हो सकती।
इसके विपरीत लघु उद्योग धंधे बहुत कम पूंजी में अच्छी ईल्ड दे देते हैं। बैंको को कार बनाने के कारखाने की जगह पूंजी को कुटीर उद्योग, बागवानी व पशुपालन में सुलभ करानी चाहिए। कार खरीदने के लिए एक व्यक्ति पांच लाख का ऋण मिनटों में प्राप्त कर सकता है परन्तु व्यापार बढ़ाने के लिए पचास हजार का ऋण मांगने पर बैंक जूते घिसवा देते हैं।
जिस देश में जो ज्यादा है वही अर्थव्यवस्था का आधार होना चाहिए। भारत कृषि क्षेत्र वाला राष्ट्र है। यहां पूंजी का जनक किसान है। खेती के लिए सस्ती खाद चाहिए परन्तु चालू वर्ष में सरकार ने खाद सबसिडी पर नौ फीसद यानी 4979 करोड की कटौती कर रखी है। तुलनात्मक रूप से देखे तो कृषि योजनाओं पर भी धन प्रवाह कम हो रहा है। 9.8 फीसद की मंहगाई को नजरअंदाज कर कृषि योजनाओं के लिए विगत वर्ष की तुलना में मात्र 2.6 फीसद अधिक राशि देकर सरकार ने अर्थव्यवस्था की रीढ़ के महत्व को कम किया है। मंहगाई को समायोजित कर यह 7 फीसद नकारात्मक है।
अब भारतीय अर्थव्यवस्था की जड़े खोदने के लिए सरकार विदेशी पूंजी को औजार के रूप में प्रयोग कर रही है। योरोपियन व अमरीकी कम्पनियां भारतीय बाजार का अधिग्रहण कर रही है। हम वर्षों से कहते आए है कि विदेशी पूंजी को भारत में लाने के लिए मना नहीं करते बशर्ते वे आधारभूत ढांचे के लिए प्रयोग की जाय। कोई विदेशी कम्पनी भारत में कारखाना लगाए, कच्चे व तैयार माल के आवागमन के लिए सडकें बनवाये, स्थानीय लोगों को भारी संख्या में रोजगार दे तो बात समझ में आती है। परन्तु, यही कम्पनी भारत में आकर मुनाफे वाले चालू कारखाने को खरीद ले तो यह घाटे का सौदा है। क्येंकि, ऐसे में भारत को कुछ अतिरिक्त प्राप्त नही होगा। भारतीय कम्पनी का मुनाफा जो पहले भारतीयों को मिल रहा था अब विदेशी कम्पनी उसे अपनी मूल कम्पनी को हस्तान्तरित कर देगी। रैनवक्सी व मारूती जापान की हो गयी, टाटा टोम को लिवर ने ले लिया, पारले पैस्पी बन गयी, विदेशी धन से यहां की कम्पनी खरीद ली गयी। यहां कुछ नया नही आया ।
इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यहां के दुकानदारों को विस्थापित करने की योजना है जिसमें वैकल्पिक व्यापार के लिए भारत सरकार ने विदेशी कम्पनी को अवसर दे दिया है। एक वालमार्ट सुनामी की तरह शहर भर के व्यापारियों को उजाड़ देगा। इन बड़े विदेशी व्यापारियों ने निर्माता कंपनियों से सीधे संविदा कर सस्ती दर पर माल उठाना शुरू कर दिया है। वे अपने माल को बाजार में सस्ता बेच कर शुरू में उपभोक्ता को आकर्षित करेंगे परन्तु चिन्ता की बात यह है कि मंडी से लेकर परचून तक स्थानीय व्यापारी खाली बैठ जाएगा। अर्थशास्त्र में प्रमाणिक कहावत है “बुरा रूपया अच्छे रूपये को बाहर कर देता है।” महंगाई व काले धन की मार से आहात भारतीय अर्थव्यवस्था किसान की उपज व व्यापारी के वितरण से हाँफते हुए ही सही, चल तो रही है। परन्तु वितरण व खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी का प्रवेश इस चाल पर ब्रेक लगा देगा। सरकार को चिन्ता अपने को कायम रखने की है परन्तु समाजवादीयों की चिन्ता भारत को आर्थिक रूप से जर्जर होने से रोकने की है।
गोपाल अग्रवाल

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