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सामंतवाद व लोकतन्त्र में सबसे बड़ा अन्तर यह है कि पहले में शासक अपनी प्रभुसत्ता को बचाए रखने एवं निजी वैभव के लिए संसाधन जुटाने में जनता का उत्पीड़न करता था जबकि चुनी गयी सरकार सामान्य नागरिक के जीवन स्तर व समाज विकास के लिए गैर उत्पीड़नकारी माध्यमों से राजस्व एकत्रित करती है जिसमें व्यवस्था पर होने वाले खर्चों को कम से कम रखा जाता है। जनहित की सरकारों में वैभव के लिए कोई बजट नही होता। इस दर्शन के अनुरूप यदि हम भारत की वर्तमान सरकारों को देखें तो निष्कर्ष यही निकलेगा कि हम पुन: सामंतवाद की ओर लौट रहे हैं।
रजबाड़ों के माल गुजारी बसूलने वाले दीवानों के क्रूरता व दिल दहला देने वाले कारनामों के फ्रेम में वर्तमान नौकरशाही को फिट करने की अतिश्योक्ति हम नहीं कर रहे बल्कि वे स्वयं अपने क्रिया कलापों से उस फ्रेम में फिट होने के लिए आतुर प्रतीत होते हैं। तत्कालीन राजाओं की सवारी और वर्तमान मंत्रीयों के काफिले की वीडियोग्राफी आम आदमी को दिखाई जाय तो वह यह तय नहीं कर पायेगा कि कहानी किस्सों वाला राजा और जनता द्वारा भेजा गया जन प्रतिनिधि व्यवहार में कोई दो चरित्र हैं। राजमहल में जमींदारों की ड्योंढी पर जमे हुए चुगलखोरों और राजनेताओं की परिक्रमा करते चापलूसों की शक्लें हु-ब-हु एक सी हैं। आजादी की लड़ाई इस ख्याल से लड़ी गयी थी कि मुटठी भर प्रभावशालीयों की चौखट तक सिमट गयी सुख की अनुभूति को सुदूर दूर सूखे खेत की मैढ़ पर बैठे आदमी के दुख में मिलाकर एक ऐसी संवेदना को जन्म दिया जाये जिसमें शोषण को हटा कर बराबरी का माहौल बने।
परन्तु, आजादी के छ: दशक बाद हम पीछे को लु<+क गये हैं। अन्तर केवल इतना रह गया है कि पहले राजा महल के अन्दर रानी की कोख से जन्म लेते थे परन्तु अब जनता के कंधों की सीढ़ी बनाकर महल की छत पर छलांग लगाते हुए सत्ता के गलियारों में चतुर पहुंचे हुए हैं।
गोपाल अग्रवाल
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