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मेरठ विश्ववद्यालय को मिलिट्री की तैनाती चाहिए

gopal agarwal
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विश्वविद्यालय को पुलिस छावनी बनाना लज्जापूर्ण है। यह प्रशासनिक कुशाग्रता की विफलता है। इसे एकतरफा कार्यवाही इसलिए भी कह सकते हैं कि विश्वविद्यालय अपनी प्रशासनिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक कार्यों में पारदर्शिता बनाने के बजाय दमन का रास्ता पकड़ रहा है। इससे विद्यार्थियों के मन की शंका को बल मिलता है कि विश्वविद्यालय में कहीं न कहीं गडबड़ीयां हैa। वैसे भी विश्वविद्यालय के पास विवेकाधीन कोष की बड़ी राशि रहती है जिसके खर्च करने के तरीकों पर हर तरफ से ऊँगली उठती रही है।
एक बात समाज को जरूर समझ लेनी चाहिए कि हम डाक्टरी की पढाई नहीं करायेंगे तो भविष्य में इलाज कौन करेगा? कानून नहीं पढायेंगे तो न्याय प्रक्रिया कैसे चलेगी? इसी तरह देश चलाने के लिए विद्यार्थी जीवन से ही स्वस्थ्य राजनीति सिखानी अनिवार्य है तभी तो देश को भविष्य में नेता मिलेंगे। आज की सरकारें इसी शून्यता का परिणाम हैं। यह हमारी प्रशासनिक कुंठा है कि भविष्य में कोई नेता पैदा न हो। सभी व्यवस्था के पिट्ठू ही पैदा हो। ध्यान रहे देश को अतीत में जो सुदृढ़ नेतृत्व मिला वह छात्र राजनीति से पनपा हुआ ही था। आज भी उदाहरण देकर कहा जाता है कि उपकुलपति आचार्य नरेन्द्रदेव जैसा हो। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय परिसर में एक भी दिन पुलिस की मदद की आवश्यकता नहीं पड़ी क्योंकि आचार्य जी स्वयं विद्यार्थियों को राजनीति में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते थे। उनका स्वयं का जीवन सरल व पारदर्शी था। विश्वविद्यालय की व्यवस्था पारदर्शी थी।
हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि एक रूपये के भी गलत इस्तेमाल की सूचना बाहर आती है या एक भी युवा सिफारिस से दाखिला पायेगा या धन देकर दाखिला पायेगा तो असन्तोष उभरेगा। इसे पुलिस या मिलिट्री से कुचलने के बजाय विद्यार्थियों की बातों को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।

एक चर्चा के दौरान उपरोक्त बहस पर पलट वार करते हुए ‍कहा गया कि सतवीं पास श्री अन्ना जी राजनीति का पाठ किसी कालेज से पढ़ कर नही आए हैं? बेशक, सबसे पहले हम यह समझें कि अन्ना हजारे उस दकियासूनी सोच पर एक तमाचा हैं जो संसद या विधान सभा में बैठने के लिए काई शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता के पक्ष में रहती है। दूसरे इस मानसिकता के लोग “एकलव्य” को विद्यार्थी न मानने की भूल कर रहे हैं। एकलव्य, अर्जुन की तरह पाठशाला में नहीं गया परन्तु उसका अध्ययन, कुशाग्रता व समर्पण उसके विद्यार्थी होने का प्रमाण थे। अन्ना हजारे ने सेवा निवृत्त होने के बाद स्वाध्याय के माध्यम से राजनीति, अध्यात्म व विचारों की दृढ़ता का जो पाठ पढ़ा तो उनके अन्दर का नेता जाग गया। विश्वविद्यालय में लाखों विद्यार्थी प्रशासनिक, तार्किक, दर्शन व राजनीति विज्ञान का पाठ पढ़ने आते हैं, उन्हें सिखाया जाता है, और सिखाया जाना चाहिए कि जहां त्रुटि देखो वहाँ विरोध करो तथा संशोधन का प्रस्ताव रखो। जब विद्यार्थी अपने पढ़े हुए पाठ्क्रम को प्रैक्टीकल में लाता है तो अनुशासनहीन घोषित कर दिया जाता है। सत्य व ज्ञान का दर्शन कराने वाली शिक्षण संस्थायें जब भ्रष्टाचार के अड्डे बन कर दुराचार करेगीं तो विद्यार्थी को भी संयम में रहते हुए विरोध का अधिकार है। कौन नहीं जानता कि शिक्षा की दुकान बन गये कालेज दाखिले के लिए रिश्वत लेते है? रिश्वतखोरों से भेदभाव रहित व्यवहार की अपेक्षा करना मूर्खता है। यह छात्र आक्रोश ऐसे ही एक दिन में नही पनपा है। रिश्वत लेने वालों ने अपने बचाव तन्त्र को मजबूत करने के लिए कुछ छात्रों को भी भ्रष्ट अवश्य किया होगा। परन्तु पहल किसने की है?
विद्यार्थी मन बनाए कि उन्हें नेता जी सुभाष और डा० राममनोहर लोहिया बनना है और शिक्षक भी आचार्य नरेन्द्रदेव बनें तभी समस्या का समाधान है।

गोपाल अग्रवाल

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