Menu
blogid : 4631 postid : 24

विदेशी पूंजी से मची तबाही

gopal agarwal
gopal agarwal
  • 109 Posts
  • 56 Comments

नयी आर्थिक नीति, जिसका भूमंडलीकरण और उदारीकरण के नाम से प्रचार हो रहा है, की घोषणा करते हुए कहा गया था कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आने से नये नये कल करखाने लगेंगे तथा बड़े पैमाने पर रोजगार के द्वार खुलेंगे। वर्तमान प्रधानमंत्री डा० मनमोहन सिंह इस नीति के ध्वजवाहक रहे हैं परन्तु वास्तविकता यह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में कल कारखाने लगाने में कोई रूचि नहीं है। शुरू में वे यहां के पहले से लगे भारतीय उद्योगों में भागीदारी तथा बाद में एकाधिकार प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं। इस प्रक्रिया में नये रोजगाकर पैदा होने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। इस तरह भूमण्डलीकरण से रोजगार का नारा कभी पूरा न होने वाला सपना है। इसके विपरीत एकाधिकार के कारण स्वदेशी उद्योगो के कारोबार बंद हुए।विदेशी कंपनियों ने इस प्रक्रिया में अधिग्रहित संपत्तियों का उपयोग अपने ढंग से किया। फैक्ट्रियों को बहुमंजिली-बहुखनी इमारतें बना कर या तो बेचा या किराए पर चलाया।
अब ऐसी कंपनियां खुदरा बाजार में भी उतर आयी हैं। “वालमार्ट” ने भारती मित्तल के साथ गठजोड़ कर वह सारा सामान बेचना शुरू कर दिया जिसे बाजार में हजारों दुकानnkj बेच कर अपना घर चलाते रहे हैa।
इसी तरह की परेशानी रेहड़ी – पटरी वालों के साथ भी जुड़ी है। फेरी का काम स्व-रोजगार है। यह निहायत ही छोटीपूंजी से शुरू हो जाता है। फेरीवाला छोटे उत्पादकों द्वारा उत्पादित वस्तुओं को मध्यवर्ग और गरीब लोगों तक पहुंचाने वाला गरीब व्यापारी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए ये बाधक है। विदेशी कंपनियों का प्रस्तुतीकरण आकर्षण होता है चाहे माल कितना भी घटिया हो। वे टी०वी०, रेडियो, अखबार व बड़े-बडे होर्डिंग लगा कर लुभावने विज्ञापनों से ग्राहक फंसा लेते हैं। दरअसल अपने देश की जड़ से कट चुके तबके को हर विदेशी चीज प्यारी लगती है। उसका उपयोग वे अपनी कल्पना में हैसीयत बढ़ाने वाला मानते हैं।
विदेशी पूंजी के चकाचौंध वाले स्टोर को व्यापार बढ़ाने का अवसर देने में सरकार भी सहायता करती है। सीधे न सही सरकारी नजरिये को भांप कर उसकी दकियासूनी नौकरशाही स्थानीय व्यापारी को अतिक्रमणकारी और विकास में बाधक मानती हैं।
इन्हें अपना कारोबार चलाने के लिए मजबूरी में निगम वालों व पुलिस को दैनिक भत्ता देना पड़ता है। ठेले वाले से फल सब्जी उठाकर अपने थेले में डालना इनके पेशे का अधिकार है। न करने पर ठेला उलट देने जैसा जंघन्य कार्य करते भी इन्हें लज्जा नही आती।
कस्बे या शहर का गरीब व्यापारी एक ही सवाल पूछ रहा है “क्या विदेशी कम्पनी के स्टोर खोलने का अर्थ स्थानीय व्यापारी की तबाही है? यदि ऐसा नही है तो कम्पनियां जिस रेट पर विदेशी स्टोर वाले को माल दे रही है वह तो यहां के थोक या मंडी के व्यापारी के दाम से भी कम है। ये सस्ता बेच कर भी ज्यादा मुनाफा कमा लेते हैं। क्या यह सब भारतीय व्यापारी को बाजkर से बेदखल करने की कोई तुरूप है? सरकार अपने ही देशवासियों की दुश्मन क्यों हो रही है? सिर्फ इसलिए कि सत्ता में ऊँचे ओहदों पर बैठे लोग अपनी इन ओछी हरकतों के बदले विदेशों में सुविधा पा रहे हैं?
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को राष्ट्रों की सीमाऐं लांघते हुए व्यापार की छूट देने वाले इसे “वसुधैव कुटुम्बकम” की उपमा देते हैं! क्या वे नही जानते कि इस आदर्श के मूल में समभाव व शोषण मुक्त व्यवस्था है।
वास्तव में वे साम्राज्यवादी ताकतो के हाथ में विकासशील देश की जनता को उत्पीड़न का औजार दे रहे हैं। देश के बुद्धिजीवियों को भारत में बढ़ रही बेरोजगारी, मंदी व व्यापारी को तबाह करने की कांग्रेस की कोशिश के खिलाफ मोर्चा साधना चाहिए। समाजवादी इन खतरों के प्रति लगातार चेतावनी देते रहे हैं। मगर, सरकार के दरबारी अर्थशास्त्री कुटिल मुस्कान के साथ अमेरिकी व अन्य पश्चिमी देशों की चरणवन्दना कर रहे हैं।
विदेशी पूंजी की आमद से मजदूर वर्ग के सामने काम की समस्या खडी हो गयी है। एक तो उत्पादन के तरीके बदल जाने से लाखों की संख्या में मजदूर बेरोजगार हो रहे हैं, दूसरे स्थानीय बजारों में हमारे परम्परागत सौदागर का अस्तित्व मिटने से दुकानदार सहित दुकान के कामगारों के तवे ठंडे हो गये हैं।
गोपाल अग्रवाल

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh