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सीधी इन्कम सीधा टैक्स

gopal agarwal
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सीधी इन्कम सीधा टैक्स बजट जानबूझ कर जटिल प्रक्रिया के अन्तर्गत बनाया जाता है। पूरे वर्ष के लिए आय के सत्रोत का आंकलन व तदनुसार खर्च की अनुमानित राशि के लेखे जोखे को बजट का नाम दिया जा सकता हैं। इस साधारण से गणित में जटिल तत्वों की भरमार इसे पांडित्य अथवा केवल विशेषज्ञों की समझ क्षेत्र में लाने के लिए किए जाता है। एक घरेलू व राष्ट के आदर्श बजट में तुलनात्मक अन्तर खातों की संख्या व राशियों का विशाल होना ही है। परन्तु कोई भी ‍वित्त मंत्री हो, बजट भाषण्‍ साधारण जनता के ऊपर से निकल जाता है| अर्थशासत्री सी०ए० तथा औद्यागिक घरानों के मुखिया ही इसके मर्म को जान पाते हैं| इसका सबूत बजट पर राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया के में साफ देखा जा सकता है| सरकार में हैं तो बजट को बढ़िया अन्यथा विरोध में हैं तो मंहगाई बढ़ाने वाला या चुनावी बता देंगे। परन्तु क्या ‍बढ़िया या क्या घटिया ये वित्त विशेषज्ञ ही बतायेंगें। मेरा दर्द भी यही है कि बजट सीधे हिसाब का क्यों नहीं होता जिससे आम आदमी भी उसके लाभ-हानि को समझ सके? आखिर इस लोक के तन्त्र में आम आदमी ही प्रथम व अन्तिम स्वामी है। तीन रत्ती डालो फिर डेढ़ रत्ती निकाल लो की युक्ति किसी को बताई जायेगी तो कहेगा कि सीधे-सीधे पहली ही बार में डेढ़ रत्ती डलवा देते। परन्तु वित्त मंत्री पहले आदमी की आय की गणना करते हैं फिर उसमें छूट देते हैं। ये छूट के प्राविधान मकड़ जाल की तरह गुत्थी भरे होते हैं जिसे समझने के लिए व्यक्ति को सी०ए० या टैक्स विशेषज्ञ के पास जाना होता है । दो विशेषज्ञों की राय भिन्न होती है और कभी न्यायालयों में भी मत विभेद हो जाता है। यदि राजनीतिपरक संवेदनशील कोई बजट बनाये तो देखेगा कि टैक्स कहां और कब लगाया जाय। मोटे तौर पर चार अवसर हैं जहां टैक्स लगाया जा सकता है। १. माल के बनते समय – उत्पादन शुल्क २. माल के बेचते समय -‍ बिक्रीकर ३. व्यक्ति की आय पर – आयकर ४. खर्चकर – सेवाकर केन्द्र सरकार ने पहले, तीसरे और चौथे नम्बर के टैक्स लगान अधिकार अपने पास रखे हुए है जबकि दूसरे नम्बर के टैक्स को राज्य सरकार लिए दिया है। राज्य सरकारों के लिए अकेला यह खाता नाकफी होने के कारण स्टाम्प डयूटी व मनोरंजन कर के खाते भी खोल दिए हैं। राज्यों के पास एक विवादित खाता और भी है जिसे आबकारी करते हैं। आय बढ़ाने के लिए सरकार शराब की बिक्री को बढ़ावा देती है। यह बात अलग है कि यह गांधी का देश है इसलिए कुछ पोस्टर नशाबन्दी के लिए भी लगवाये जाते हैं। उत्पादन शुल्क व सेवा कर का दायित्व उपभोक्ता पर पड़ता है। राज्यों के बिक्री कर भी शत-प्रतिशत उपभोक्ता के ऊपर है जिसे अन्तिम बूंद तक निचोड़ने के लिए वैट लगाया गया। इसकी वसूली का तन्त्रक ‍विस्तृत होने के कारण इसमें भ्रष्टाचार के परजीवी खूब फूलते है। इसका राजस्व एकत्रीकरण व्यापार तंत्र के माध्यम से होता है। इसमें व्यापारी का भी जमकर उत्पीड़न होता है। सरकार यदि उत्पादन व बिक्रीकर को एक मान कर चले और उत्पादन पर उपभोक्ता मूल्य की दर के अनुपात से टैक्स लगा दें तो सिस्टम में लगी भ्रष्टाचार की का स्वत: सूख जायेगा। कर वसूली भी सरल व सटीक हो जायेगी। इस वसूली गयी राशि से राज्यों का हिस्सा उनकी आबादी के हिसाब से तय कर दिया जाये। आयकर व सेवा कर को भी मिलाकर एक किया जा सकता है। व्यक्ति अपनी आमदनी या तो खर्च करने के लिए करेगा या स्विस बैंकों में जमा करेगा। विदेशी बैंकों में जमा धन विदेशों में लिए गये कमीशन का होता है। उससे निपटने के लिए बड़े सौंदों में पारदशिता बनानी होगी। हमें इस सूत्र को समझ लेना होगा कि आमदनी ‍छिपाई जा सकती हैं खर्च नहीं। महंगे कपड़े, महंगा खाना हवाई या तथा स्टेटस सिब्बल वाले सभी उपकरण भारी टैक्स के दाये में रहेंगे। दूसरी ओर चिकित्सा व शिक्षा पूरी तरह से सरकार का उत्तरदायित्व होगा। चपरासी से लेकर मंत्री तक के पुत्र-पुत्री एक ही स्तर की पढ़ाई पढ़ेंगें। इससे स्वास्थ्य सेवाओं का स्तर बढ़ जायेगा। सरकारी स्कूलों में दमदार पढ़ाई होने लगेगी। एक सीमा के बाद की राशि पर टैक्स कटेगा। वाहनों का पंजीयन नि:शुल्क होगा। इस प्रकार के अलग-अलग खातों को युगल कर उत्पादन के समय ही टैक्स की रकम कीमत में जुड़ जायेगी। भ्रष्टाचार का अडडा बना आर०टी०ओ० विभाग, वाहन सेवा केन्द्र मंी तब्दील होकर राज्य परिवहन का संचालन करेगा। दरअसल बिक्रीकर, परिवहन, श्रम, भविष्य निधि आदि प्रवर्तन की आढ़ में वसूली के अड्डे बन गये हैं। बात वहीं घूम कर जटिलता व विभिन्न छूट प्राप्त करने पर आती है तो यह प्रलोभन का बाजार बन्द होना चाहिए। दवा निर्माता डाक्टर पर खर्च कर रहे हैं। फ्रिज, टी०वी० वाले वितरक को बल्क में माल उठाने पर विदेश या करा रहे हैं। आखिर यह सब नागरिकों की जेब से ही जा रहा है। ऐसी गला का प्रतियोगिता का क्या लाभ जिसमें जनता की जेब कटे। हमारें यहां विदेशों की नकल खूब करते हैं। खास तौर पर यूरोपियन देशों की। परन्तु वहां देखें तो आम नौकरी पेशा आदमी को टैक्स का कोई क्लेश नहीं है। एक निश्चित दर वेतन से काट ली जाती है। सरकार नागरिकों की खूब सेवा करती है। पब्लिक टान्सपोर्ट बढ़िया है। इलाज यहां प्राइवेट से अच्छा है। अब सरलीकरण के नाम पर भी कोई कमेटी नहीं बननी चाहिए। सारे टैक्स कानून ध्वस्त कर दें। टैक्स पर सरचार्ज क्यों लगाये जाते हैं? यदि किसी खाते विशेष के लिए कोई धर्माधा खोलना है तो बजट में उसे पृथक से आवंटित कर दें। सैस या शुल्क उलझन भरे काम हैं। आखिर सरकार समझे कि टैक्स वह है जिसके देने में जोर न पड़े और जिसकी गणना टैक्सदाता सादा जोड़-घटाने से कर ले। गोपाल अग्रवाल

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